सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को तमिलनाडु सरकार द्वारा राज्यपाल आरएन रवि के खिलाफ दायर याचिकाओं पर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया, जिसमें राज्य विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की नियुक्ति से संबंधित विधेयकों सहित राज्य विधानसभा द्वारा पारित कई विधेयकों को मंजूरी देने से इनकार कर दिया गया था।
सोमवार को सुनवाई के दौरान जस्टिस जेबी पारदीवाला और आर महादेवन की बेंच ने राज्यपाल से यह भी पूछा कि राज्यपाल द्वारा विधेयक को वापस भेजे जाने के बाद राज्य विधानमंडल द्वारा विधेयक पर पुनर्विचार करके उसे दूसरी बार स्वीकृति दिए जाने के बाद वह उसे राष्ट्रपति के पास विचारार्थ कैसे भेज सकते हैं।
कोर्ट ने पूछा, "यदि विधेयक सरकार के पास वापस आए और फिर से पारित किए गए और राज्यपाल ने विधेयक को फिर से पारित करवा लिया, तो राष्ट्रपति के पास क्या भेजा गया?"
तमिलनाडु राज्य की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता राकेश द्विवेदी ने पुष्टि की कि राज्य विधानमंडल द्वारा पुनर्विचार करके दूसरी बार पारित किए गए विधेयकों को भारत के राष्ट्रपति के पास भेजा गया था।
इसके बाद कोर्ट ने भारत के अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमानी से पूछा, "पुनः पारित विधेयक को राष्ट्रपति के पास कैसे भेजा जा सकता है?"
बेंच ने कहा कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल (विधेयक को स्वीकृति देने के अलावा) या तो स्वीकृति रोक सकते हैं या विधेयक को राष्ट्रपति के पास भेज सकते हैं।
राज्यपाल द्वारा विधेयक को विधानमंडल के पास वापस भेजे जाने के बाद, अनुच्छेद 200 के तहत विधेयक को राष्ट्रपति के पास भेजने का विकल्प स्वतः ही समाप्त हो जाता है।
न्यायालय ने टिप्पणी की यदि राज्य विधानमंडल विधेयक को पुनः पारित करता है, तो राज्यपाल को अपनी स्वीकृति देनी होगी।
न्यायालय ने कहा, "यदि राज्यपाल स्वीकृति नहीं देते हैं, तो स्वतः ही वह प्रावधान (मामले को राष्ट्रपति के पास भेजने का) प्रभावी नहीं होता है।"
राज्य ने राज्यपाल/राष्ट्रपति को राज्य विधानमंडल द्वारा पारित विधेयकों पर समयबद्ध तरीके से निर्णय लेने या उन्हें स्वीकृति देने के निर्देश देने के लिए न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था।
तमिलनाडु सरकार ने तर्क दिया राज्य सरकार ने तर्क दिया है कि राज्यपाल इन विधेयकों पर अनिश्चित काल तक स्वीकृति न देकर पूरे राज्य को बंधक बना रहे हैं। ऐसी स्थिति में न्यायालय को हस्तक्षेप करना चाहिए।
6 फरवरी को पहले की सुनवाई के दौरान न्यायालय ने इस बात पर गंभीर टिप्पणी की थी कि राज्यपाल ने तमिलनाडु विधानसभा द्वारा पारित कई विधेयकों पर स्वीकृति न देकर "अपनी खुद की प्रक्रिया तैयार की है", जिससे संवैधानिक प्रावधान निरर्थक हो गए हैं।
इसी तरह की चिंता न्यायालय ने सोमवार (10 फरवरी) को भी जताई।
सुनवाई के दौरान पीठ ने कहा कि यदि राज्यपाल राज्य को यह नहीं बताते कि विधेयक में कौन से मुद्दे हैं जिन पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है, तो विधेयक पर पुनर्विचार करने की पूरी प्रक्रिया "खाली औपचारिकता" बनकर रह जाएगी।
शीर्ष अदालत ने कहा, "इस पर खुले दिमाग से विचार करें। आप देश के अटॉर्नी जनरल हैं। दो स्थितियों की कल्पना करें - कि इनमें से किसी पर भी चर्चा नहीं होती है और (राज्यपाल) विधेयक को वापस भेज देते हैं और राज्य इस पर पुनर्विचार करता है। उन्होंने पुनर्विचार क्या किया? उन्हें नहीं पता कि राज्यपाल के मन में क्या था। इसलिए (पुनर्विचार) एक खोखली औपचारिकता बन जाती है। यह मुद्दा क्यों उठाया गया आदि... (विधेयक को विधानसभा में वापस भेजते समय) कुछ भी नहीं कहा गया। सरकार से पुनर्विचार की उम्मीद खुलेआम नहीं की जा सकती।"
अदालत ने इस बारे में भी चिंता जताई कि क्या तमिलनाडु के राज्यपाल अपने कार्यों से संवैधानिक प्रावधानों को बेमानी बना रहे हैं।
न्यायमूर्ति पारदीवाला ने टिप्पणी की, "अब जब वे विधेयक को रोक रहे हैं, तो वे यह नहीं बताते कि किस कारण से और फिर (वे) इसे वापस भेज देते हैं। शायद इसलिए कि यदि वे कारण बताते हैं तो यदि राज्य इस पर विचार करता है और इसे वापस भेजता है, तो राष्ट्रपति के पास कोई विकल्प नहीं रह जाता? इसलिए ऐसा न करके (कारण न बताकर) क्या राज्यपाल दूसरे विकल्प को निरर्थक नहीं बना रहे हैं?"
इस बीच, वरिष्ठ अधिवक्ता राकेश द्विवेदी ने कहा कि राज्यपाल किसी भी स्थिति में केवल "मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह" पर ही कार्य कर सकते हैं।
अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमणी ने उचित रूप से प्रस्तुत किया कि उनका दृढ़ विश्वास है कि राज्यपाल को जिम्मेदारी की भावना के साथ कार्य करना चाहिए क्योंकि वे एक संवैधानिक प्राधिकारी हैं।
तमिलनाडु सरकार की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता ए.एम. सिंघवी, मुकुल रोहतगी और पी. विल्सन भी पेश हुए।
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How did Tamil Nadu Governor send re-passed bills to President? Supreme Court