जम्मू-कश्मीर और लद्दाख उच्च न्यायालय ने शुक्रवार को धार्मिक मौलवी और राजनीतिक नेता मीरवाइज मोलवी मोहम्मद उमर फारूक की 'अवैध' नजरबंदी को चुनौती देने वाली याचिका पर सरकार से जवाब मांगा। (मीरवाइज मोलवी मोहम्मद उमर फारूक बनाम जम्मू-कश्मीर केंद्रशासित प्रदेश)।
फारूक अगस्त 2019 में संविधान के अनुच्छेद 370 के आवेदन में संशोधन करके जम्मू और कश्मीर को दिए गए विशेष दर्जे को रद्द करने के केंद्र सरकार के फैसले से पहले हिरासत में लिए गए राजनीतिक नेताओं में से एक थे। तब से वह घर में ही नजरबंद हैं।
15 सितंबर को न्यायमूर्ति रजनीश ओसवाल ने सरकार को सुनवाई की अगली तारीख तक मामले में अपना जवाब दाखिल करने का निर्देश दिया।
उच्च न्यायालय के समक्ष फारूक का प्रतिनिधित्व करने वाले वरिष्ठ अधिवक्ता एनए रोंगा ने कहा कि सरकार ने उन्हें पिछले चार वर्षों से श्रीनगर स्थित अपने घर से बाहर आने की अनुमति नहीं दी है।
रोंगा ने आगे तर्क दिया कि फारूक को 4 अगस्त, 2019 से आज तक सक्षम प्राधिकारी के किसी भी हिरासत आदेश के बिना अवैध रूप से कैद में रखा गया है। रोंगा ने तर्क दिया कि यह भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत फारूक के जीवन के मौलिक अधिकार का उल्लंघन है।
रोंगा ने कहा, इससे पहले सरकारी प्रतिनिधियों को एक कानूनी नोटिस भी जारी किया गया था, जिसमें फारूक को ऐसे अवैध कारावास से बिना किसी लाभ के रिहा करने का आग्रह किया गया था।
आगे कहा गया कि धार्मिक प्रमुख (मीरवाइज-ए-कश्मीर) होने के नाते फारूक समाज में अच्छे मूल्यों को बढ़ावा देने और सामाजिक बुराइयों के उन्मूलन के लिए अथक प्रयास कर रहे हैं। कोर्ट को बताया गया कि उनके योगदान के लिए उन्हें विश्व स्तर पर भी समय-समय पर सराहना मिली है।
उन्हें कैद करके उनके नेक मिशन को पूरा करने से वंचित कर दिया गया है।' रोंगा ने तर्क दिया कि हजारों लोग रमजान के पवित्र महीने सहित महत्वपूर्ण धार्मिक अवसरों पर उनके प्रेरक उपदेश सुनने से वंचित रह जाते हैं।
शुक्रवार को जम्मू-कश्मीर सरकार की ओर से वकील महा माजिद ने इस मामले में नोटिस स्वीकार कर लिया.
इस मामले की सुनवाई 4 अक्टूबर 2023 को फिर होगी.
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