इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने बुधवार को एक लिव-इन जोड़े को सुरक्षा देने से इनकार कर दिया, यह देखते हुए कि महिला की शादी किसी अन्य व्यक्ति से हुई थी और इसलिए न्यायालय अवैधता की अनुमति नहीं दे सकता है। (श्रीमती गीता बनाम उत्तर प्रदेश राज्य)।
जस्टिस कौशल जयेंद्र ठाकर और दिनेश पाठक की खंडपीठ ने कहा कि भारत के संविधान का अनुच्छेद 21 व्यक्तियों को स्वतंत्रता की गारंटी देता है, ऐसी स्वतंत्रता कानून के दायरे में होनी चाहिए जो उन पर लागू होती है।
कोर्ट ने कहा, "याचिकाकर्ता नं 1 ने याचिका में उल्लेख किया है कि वह प्रतिवादी संख्या 5 . की कानूनी रूप से विवाहित पत्नी है और उसने जो भी कारणों से अपने पति से दूर जाने का फैसला किया है, क्या हम उन्हें जीवन और स्वतंत्रता की सुरक्षा की आड़ में लिव-इन-रिलेशन की अनुमति दे सकते हैं। इसलिए हम यह समझने में विफल रहते हैं कि इस तरह की याचिका को समाज में अवैधता की अनुमति कैसे दी जा सकती है।"
कोर्ट ने कहा, "क्या हम उन लोगों को सुरक्षा प्रदान कर सकते हैं जो ऐसा करना चाहते हैं जिसे हिंदू विवाह अधिनियम के जनादेश के खिलाफ एक अधिनियम कहा जा सकता है। भारत के संविधान का अनुच्छेद 21 किसी व्यक्ति को अपनी स्वतंत्रता की अनुमति दे सकता है, लेकिन स्वतंत्रता उन पर लागू होने वाले कानून के दायरे में होनी चाहिए।"
याचिकाकर्ताओं ने प्रतिवादियों (परिवार के सदस्यों) को निर्देश देने के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाया था कि वे उनके शांतिपूर्ण जीवन में हस्तक्षेप न करें और उन्हें परेशान न करें।
याचिका में पति द्वारा किए गए भारतीय दंड संहिता (अप्राकृतिक अपराध) की धारा 377 के तहत अपराधों के बारे में भी बताया गया है।
अदालत ने हालांकि कहा कि महिला द्वारा न तो ऐसी कोई शिकायत की गई थी और न ही इस संबंध में कोई प्राथमिकी दर्ज की गई थी।
कोर्ट ने देखा, “क्या उसके पति ने ऐसा कोई कार्य किया है जिसे धारा 377 I.P.C के तहत अपराध कहा जा सकता है। जिसके लिए पत्नी ने कभी शिकायत नहीं की, ये सब तथ्यों के विवादित प्रश्न हैं। कोई एफआईआर नहीं है।“
इसलिए, कोर्ट ने उत्तर प्रदेश राज्य कानूनी सेवा प्राधिकरण के पास जमा किए जाने वाले 5,000 रुपये के जुर्माने के साथ दंपत्ति की याचिका को खारिज कर दिया।
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