कथित सामूहिक बलात्कार की शिकार 19 वर्षीय दलित महिला की भोर से पहले ही अंत्येष्टि किये जाने की घटना का इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ बेंच द्वारा स्वत: संज्ञान लिये जाने के मद्देनजर तहसीन पूनावाला ने न्यायालय को पत्र लिखकर उन सभी पुलिस अधिकारियों की व्यक्तिगत पेशी सुनिश्चित करने का अनुरोध किया है जो पुलिस द्वारा पीड़ित की अंत्येष्टि के समय प्रभारी थे।
उच्च न्यायालय द्वारा एक अक्टूबर को इस मामले का स्वत: संज्ञान लिये जाने और 12 अक्टूबर को इन अधिकारियों को पेश होने के आदेश के तुरंत बाद उप्र सरकार द्वारा वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों के निलंबन और शीर्ष अधिकारियों के तबादले के आदेश के मद्देनजर यह अनुरोध किया गया है।
महत्वपूर्ण बात यह है कि न्यायालय ने इन अधिकारियों को उनके नाम से नहीं बल्कि पद से हाजिर हाने का आदेश दिया था।
यह आशंका व्यक्त की गयी है कि चूंकि राज्य सरकार द्वारा निलंबन और तबादले की कार्यवाही की वजह से संभव है कि पीड़ित की अंत्येष्टि के दौरान प्रभारी अधिकारी न्यायालय में पेश नहीं हो।
पूनावाला ने पांच अक्टूबर के पत्र में न्यायालय से इस मामले की निगरानी करने का अनुरोध किया है क्योंकि योगी आदित्यनाथ की सरकार ने इसकी जांच केन्द्रीय जांच ब्यूरो को सौंपने की घोषणा कर दी है।
इसमें यह भी लिखा है कि पीड़ित परिवार की सुरक्षा का भी निर्देश दिया जाये।
न्यायमूर्ति रंजन रॉय और न्यायमूर्ति जसप्रीत सिंह की पीठ ने एक अक्ट्रबर को राज्य सरकार को यह सुनिश्चित करने निर्देश दिया था कि किसी के भी द्वारा मृतक के परिवार के सदस्यों पर किसी भी प्रकार का दंडात्मक कदम या उन्हें प्रभावित करने की कार्रवाई नहीं की जाये।
हालांकि, मीडिया रिपोर्ट के अनुसार पीड़ित परिवार के सदस्यों पर दबाव बनाया गया और उन्हें उनके घरों में बंद कर दिया गया । यह भी खबर थी कि इस घटना के तूल पकड़ने पर राज्य सरकार ने मीडिया, कार्यकर्ताओं और राजनीतिक व्यक्तियों के पीड़ित के परिवार से मिलने पर रोक लगा दी थी।
यह आरोप भी सामने आये हैं कि पीड़ित के परिवार पर नार्को टेस्ट कराने के लिये दबाव डाला जा रहा है।
ध्यान रहे कि उच्चतम न्यायालय ने सेल्वी बनाम कर्नाटक प्रकरण में 2012 में व्यवस्था दी थी कि किसी भी व्यक्ति को नार्को परीक्षण या पालीग्राफ टेस्ट ओर ब्रेन मैपिंग टेस्ट , जिन्हें झूठ पकड़ने वाले परीक्षण भी कहा जाता है, के लिये बाध्य नहीं किया जा सकता । उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि इस तरह के परीक्षण जबरन करना गरिमा के अधिकार और खुद पर ही दोषारोपण के खिलाफ अधिकार का हनन है।
यही नहीं, न्याययालय ने यह भी व्यवस्था दी थी कि ऐसे परीक्षणों के लिये व्यक्ति ने सहमति दी भी हो तो इसके नतीजों को अपने आप में स्वीकार्य सबूत नहीं माना जा सकता क्योंकि परीक्षण के दौरान जवाब देते समय विवेक का इस्तेमाल नहीं किया गया होता है।
पूनावाला ने न्यायालय से निर्देश देने का अनुरोध किया गया है कि जांच एजेन्सियां पीड़ित के परिवार पर किसी भी तरह का दबाव नहीं डालें। साथ ही उन्होंने यह निर्देश देने का भी अनुरोध किया है कि परिवार को नार्को परीक्षण कराने के लिये बाध्य नहीं किया जाये।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इस मामले का एक अक्टूबर को स्वत: संज्ञान लिया था जिसमे बताया जाता है उप्र के हाथरस के गांव मे इस पीड़ित के साथ सामूहिक बलात्कार हुआ और बुरी तरह से जख्मी इस महिला की मृत्यु हो गयी।
खबरों के अनुसार बलात्कार के बाद पीड़ित की जुबान काट दी गयी थी ताकि वह अपराधियों की पहचान उजागर नहीं कर सके। इन जख्मी से अस्पताल में जूझते हुये पीड़ित की मृत्यु होने के बाद मीडिया की खबरों में आया कि पुलिस ने 30 सितंबर को भोर होने से पहले ही सवेरे ढाई बजे उसकी अंत्येष्टि कर दी।
मीडिया की खबरों में यह भी कहा गया कि परिवार ने पीड़ित का अंतिम संस्कार नहीं करने की पुलिस से गुहार भी लगाई। परिवार को पीड़ित की शक्ल देखने से भी रोका गया। उच्च न्यायालय ने अपने आदेश में इस तथ्य का जिक्र किया कि पुलिस अधिकारियों ने जोर देकर कहा कि परिवार की सहमति से ही अंत्येष्टि की गयी है लेकिन मीडिया को दिये गये इंटरव्यू में परिवार ने इसके उलटी जानकारी दी है।
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