अटर्नी जनरल केके वुणुगोपाल ने आज उच्चतम न्यायालय से कहा कि उच्च न्यायालय के आदेश यौन हिंसा के अपराधों को महत्वहीन बना रहे हैं जो और कुछ नहीं सिर्फ ड्रामा है और इसकी निन्दा की जानी चाहिए।
अटार्नी जनरल ने न्यायाधीशों के लिये लैंगिक संवेदनशीलता के प्रशिक्षण को समय की जरूरत बताया और सुझाव दिया कि न्यायाधीशो की भर्ती की परीक्षा मे ‘लैंगिक संवेदनशीलता’ एक विषय होना चाहिए। उन्होंने राष्ट्रीय न्यायिक अकादमी और राज्य न्यायिक अकादमी में भी इसे प्रशिक्षण का विषय बनाने पर जोर दिया।
न्यायमूर्ति एएम खानविलकर, न्यायमूर्ति संजीव खन्ना और न्यायमूर्ति दिनेश माहलेश्वरी की पीठ मप्र उच्च न्यायालय के 30 जुलाई के जमानत के आदेश के खिलाफ दाययर अपील पर सुनवाई कर रही थी। इस आदेश में यह शर्त लगाई गयी थी की यौन हिंसा के आरोपी से कहा गया था कि वह पीड़िता से उसे राखी बांधने का अनुरोध करेगा।
न्यायालय ने इस मामले में अटार्नी जनरल वेणुगोपाल को नोटिस जारी किया था ताकि जमानत के आदेशों में इस तरह की शर्ते लगाने से न्यायाधीशों को कैसे रोका जाये। उन्होंने आज कहा,
‘‘इस आदेश से ऐसा लगता है कि न्यायालय आवेष में बह गया। न्यायालय को स्वंय को दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 437 और 438 तक शर्तो के संबंध में खुद को सीमित रखना चाहिए। यह सब ड्रामा है और इसकी निन्दा करने की जरूरत है।’’अटार्नी जनरल केके वेणुगोपाल
अटार्नीजनरल केके वेणुगोपाल ने आगे कहा ,
‘‘जहां तक लैंगिक संवेदनशीलता का संबंध है, उच्चतम न्यायालय में लैंगिक संवेदनशीलता और शिकायत समाधान समिति है और जिला और अधीनस्थ तथा उच्च न्यायालयों को भी लैंगिक संवेदनशीलता के बारे में व्याख्यान देने की आवश्यकता है। लैंगिक संवेदशीलता के बारे में न्यायाधीशों की परीक्षा होनी चाहिए और राष्ट्रीय न्यायिक अकादमी और राज्य न्यायिक अकादमी में इस विषय पर कार्यक्रम आयोजित किये जाने चाहिए। जहां तक एक समिति का सवाल है तो उच्चतम न्यायालय का फैसला राज्य सूचना प्रणाली पर डाला जाना चाहिए जो अधीनस्थ अदालतों तक पहुंचेगा।’’
उन्होंने कहा,
‘‘इस न्यायालय के लिये लैंगिक संवेदनशीलता का पाठ पढ़ाने का यह अवसर है।’’
शीर्ष अदालत ने अब वेणुगोपाल और सभी संबंधित पक्षों से कहा है कि वे अपने लिखित कथन या नोट दें कि इस बारे में क्या कदम उठाये जा सकते हैं।
वरिष्ठ अधिवक्ता दुष्यंत दवे 96 साल के बुजुर्ग पूर्व न्यायाधीश और 84 वर्षीय वरिष्ठ अधिवक्ता को भी इस मामले में लिखित नोट पेश करने की अनुमति दी गयी। इन दोनों ने इस मामले में हस्तक्षेप की अर्जी दायर कर रखी है।
इस मामले को तीन सप्ताह बाद सूचीबद्ध करने का निर्देश दिया गया है। उम्मीद है कि इस पर 27 नवंबर को सुनवाई होगी।
न्यायालय अधिवक्ता अपर्णा भट और आठ अन्य महिला वकीलों द्वारा मप्र उच्च न्यायालय के जमानत के लिये राखी के 30 जुलाई के आदेश के मद्देनजर देश की अदालतों में यौन अपराधों को महत्वहीन बनाये जाने पर सवाल उठाते हुये दायर याचिका पर सुनवाई कर रहा था।
याचिकाकर्ताओं की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता संजय पारिख ने दलील दी थी कि यह याचिका सिर्फ मप्र उच्च न्यायालय के आदेश तक सीमित नहीं है बल्कि यह न्यायाधीशों की इस तरह की टिप्पणियों की वजह से यौन हिंसा की शिकार महिलाओं को ‘विषय वसतु’ बनाने के सवालों पर गौर करने के लिये है।
याचिका में उच्च न्यायालय इस जमानत शर्त पर रोक लगाने का अनुरोध किया गया है। याचिकाकर्ताओं ने कहा है कि उन्होंने आरोपी को जमानत दिये जाने के आदेश को चुनौती नहीं दी बल्कि राखी बंधवाने की शर्त को चुनौती दी है।
उच्च न्यायलाय ने अपने आदेश में कहा था,
‘‘आवेदनकर्ता अपनी पत्नी के साथ राखी का धागा लेकर तीन अगस्त, 2020 को दिन में 11 बजे शिकायतकर्ता के घर जायेगा और शिकायतकता सारदा बाई से अनुरोध करेगा कि वह उसे राखी बांधे और वायद करे कि वह अपनी भरपूर क्षमता के अनुसार उनकी रक्षा करेगा। वह परंपरा के अनुसार शिकायतकर्ता को 11,000 रूपए देगा जो इस अवसर पर रस्म के रूप में भाई अपनी बहनों को देते हैं और उनका आशीर्वाद प्राप्त करेगा।’’
उच्चतम न्यायालय ने इस तथ्य का जिक्र किया कि यह मामला मप उच्च न्यायालय के जमानत के आदेश के खिलाफ नहीं है क्योकि जमानत की शर्त पहले ही पूरी हो चुकी है।
याचिका में कहा गया कि चूंकि यह फैसला उच्च न्यायालय का है और ऐसी स्थिति में इस तरह के जघन्य अपराध को यह महत्वहीन बनाता है और इस बात की पूरी संभावना है कि ऐसी टिप्पणियां और निर्देश उसे सामान्य बना सकती हैं जो अपराध है और कानून में जिसे ऐसा ही माना गया है।
याचिका में कहा गया, ‘‘उच्च न्यायालय को इस तथ्य को ध्यान में रखते हुये अधिक सतर्क और संवेदनशील होना चाहिए था कि यह यौन हिसा के अपराध का मामला है जो एक महिला के साथ हुआ है। पीड़ित के लिये इसकी प्राथमिकी दर्ज करना और आरोपी के खिलाफ आपराधिक मामले को आगे बढ़ाना बहुत ही मुश्किल होता है।’’
याचिका में एक यह कानूनी सवाल उठाया गया है, ‘‘क्या जमानत के मामले में अदालत के लिये ऐसी शर्ते लगाना उचित है जो आरोपी और शिकायतकर्ता के बीच सपंर्क की अनुमति दे रहे हों?’’
याचिका के अनुसार उच्च न्यायलाय आरोपी को पीड़ित के घर जाने का निर्देश अपने आप में ही शिकायतकर्ता का अपने ही घर में शोषण ही है। यचिका में इस तथ्य को भी रेखांकित किया गया है कि इस मामले में आरोपी ने पीड़ित के घर में जबरन घुसकर ही शिकायतकर्ता का शील भंग करने का कथित अपराध किया था।
याचिका में इस बात पर भी आपत्ति की गयी है कि यौन हिंसा की शिकार महिला को ‘रक्षाबंधन’ की परंपरागत रस्म के रूप में 11,000 रूपए स्वीकार करने के लिये बाध्य किया गया जो अदालतों द्वारा ऐसे मामले में दिलाये जाने वाले मुआवजे से विपरीत है।
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