दिल्ली उच्च न्यायालय ने माना है कि एक निर्माण की अवैधता बिना किसी संगीन और ठोस साक्ष्य के अभाव मे अदालत में याचिका दायर की नहीं जा सकती है (दिलीप कुमार बनाम एनडीएमसी)।
यह आदेश मुख्य न्यायाधीश डीएन पटेल और न्यायमूर्ति प्रतीक जालान की खंडपीठ ने दिलीप कुमार द्वारा प्रस्तुत की गयी जनहित याचिका में पारित किया था।
याचिकाकर्ता ने राष्ट्रीय राजधानी में एक निश्चित स्थान पर अवैध निर्माण को ध्वस्त करने के लिए नगर निगम अधिकारियों और "न्याय के लिए दोषी को निश्चित” करने के लिए निर्देशित किए जावे
यह कहा गया कि प्रश्नगत निर्माण / भवन एक पुराना निर्माण था और इस प्रकार, इस पर दो अतिरिक्त मंजिलों का निर्माण नहीं किया जा सकता था।
कथित रूप से अवैध निर्माण को खतरनाक बताते हुए, याचिकाकर्ता ने अपनी जिम्मेदारियों के प्रभावी कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने के लिए संबंधित अधिकारियों को एक निर्देशित करने की भी प्रार्थना की।
याचिकाकर्ता द्वारा किए गए प्रस्तुतिकरण पर विचार करने के बाद, न्यायालय ने पाया कि वर्तमान जनहित याचिका को आवश्यक देखभाल या जिम्मेदारी के बिना प्रस्तुत किया गया था।
निर्माण अवैध या बिना मंजूरी के है, इस आरोप के समर्थन मे कोई पुख्ता साक्ष्य नहीं थी, न्यायालय ने कहा कि,
"याचिकाकर्ता ने इस संबंध में प्राप्त की गई किसी भी जानकारी के स्रोत के बारे में न तो कहा है, न ही उनके इस विश्वास का आधार है कि निर्माण अवैध है। केवल एक अस्पष्ट प्रकथन है कि याचिका इंटरनेट सहित सार्वजनिक डोमेन में जानकारी पर आधारित है। इस विषय पर जनहित याचिका के माध्यम से न्यायालय का रुख एक राय बनाने के लिए शायद ही पर्याप्त है।“दिल्ली उच्च न्यायालय
प्रश्नगत भवन के स्वामित्व या प्रबंधन के संबंध में और उन्हें एक पक्षकार के रूप में शामिल करने के लिए बिना किसी जांच के अवैधता के आरोप लगाए गए
इस प्रकार न्यायालय ने यह दावा किया कि जनहित याचिका बिना किसी आधार और ज्ञान के प्रस्तुत की गई और स्पष्ट किया कि,
निर्माण की वैधता या अन्यथा किसी भी ठोस सबूत के बिना स्थापित नहीं की जा सकती है जिससे कि संबंधित अधिकारियों या सक्षम न्यायालय के सामने नेतृत्व किया जा सके । "दिल्ली उच्च न्यायालय
जनहित याचिका में कोई सार नहीं मिलने पर, अदालत ने याचिकाकर्ता द्वारा दिल्ली राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण के पक्ष मे जुर्माने के रूप मे 25.000 रुपये जमा करने के निर्देश के साथ इसे खारिज कर दिया।
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