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केरल पुलिस अधिनियम की धारा 118A: केरल उच्च न्यायालय के समक्ष 5 याचिकाओं में 5 आधारों को चुनौती

इस लेख में केरल पुलिस कानून की धारा 118ए को चुनौती देने वाले कुछ आधारों पर चर्चा की गयी है

Bar & Bench

केरल पुलिस कानून की धारा 118ए पर अमल नही करने के मुख्यमंत्री के आश्वासन के बावजूद इसकी वैधानिकता को लेकर कानूनी लड़ाई जारी है।

केरल पुलिस कानून में संशोधन कर इसमे धारा 118ए जोड़ने के विवादास्पद अध्यादेश को राज्यपाल की मंजूरी के चार नेताओं, एक कार्यकर्ता, कानून की एक छात्रा और एक अधिवक्ता ने इस प्रावधान को निरस्त कराने के लिये केरल उच्च न्यायालय में याचिकायें दायर की हैं।

ऑन लाइन और विभिन्न मीडिया में शिष्टता के साथ बातचीत को प्रोत्साहित करने के इरादे से लाये गये इस प्रावधान की तीखी आलोचना हो रही है क्योंकि इसके प्रावधान अस्पष्ट हैं और यह पूरी तरह से सूचना प्रौद्योगिकी कानून, 2000 की धारा 66ए के समान ही है।

नये प्रावधान के अनुसार अगर कोई व्यक्ति संचार के किसी भी माध्यम से किसी व्यक्ति को डराने, मानहानि करने अपमानित करने वाली ऐसी कोई सामग्री, यह जानते हुये कि यह झूठी और दूसरे की प्रतिष्ठा का ठेस पहुंचाने वाली है, प्रकाशित, प्रचारित या प्रसारित करता है तो यह दंडनीय अपराध होगा।

इसमें प्रावधान था कि इस अपराध के लिये दोषी पाये गये व्यक्ति को तीन साल तक की कैद या 10,000 रूपए तक का जुर्माना या दोनों की सजा हो सकती है।

बार एंड बेंच से बात करते हुये एक याचिकाकर्ता के अधिवक्ता ने कहा कि धारा 118ए की वैधता को चुनौती राज्यपाल द्वारा अध्यादेश वापस लिये जाने तक जारी रहेगी। वह बताते हैं कि अनुच्छेद 213 (2)(बी) एकमात्र उपाय है जिसके माध्यम से राज्य सरकार विधान सभा में जाये बगैर ही इस अध्यादेश को वापस ले सकती है।

इन याचिकाओं में धारा 118ए को चुनौती देने के प्रमुख आधार निम्नलिखित हैं:

प्रावधान की भाषा अस्पष्ट:

सभी याचिकाओं में किसी न किसी रूप में इसे आधार बनाया गया है कि प्रावधान की भाषा अस्पष्ट है। एक याचिका में इस प्रावधान में अंतर्निहित अस्पष्टता को इंगित करते हुये एक दिलचस्प सवाल उठाया गया है कि ‘‘यह परिभाषित कौन करेगा कि मानसिक आघात क्या है।’’

एक अन्य याचिका में कहा गया है कि इस प्रावधान में प्रयुक्त शब्दावली की व्याख्या अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।

व्यक्तिगत गलती को आपराधिक कृत्य का रूप

याचिकाओं में इस तथ्य को प्रमुखता से उठाया गया है कि यह प्रावधान संज्ञेय है और इस तरह से यह बगैर वारंट के ही किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करने का पुलिस को अधिकार देता है।

याचिकाकर्ताओं की दलील दी है कि इसी तरह के अपराध, जो एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति के साथ किये गये अनुचित (मानहानि या भड़काने जैसा कृत्य) आचरण के बारे में पहले ही भारतीय दंड संहिता में दंडनीय प्रावधान है और महत्वपूर्ण बात यह है कि यह अपराध गैर संज्ञेय है।

एक याचिका में कहा गया है कि यह प्रावधान अनुरूपता के सिद्धांत को प्रभावित करता है।

अनुच्छेद 19(1)(ए) का उल्लंघन करती है

धारा 118ए की वैधानिकता को चुनौती देने वाली सभी याचिकाओं में इसे संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) का उल्लंघन करने वाला बताते हुये कहा गया है कि यह बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अनुचित बंदिश लगाने जैसा है। याचिकाओं में इस संबंध में श्रेया सिंघल बनाम भारत सरकार प्रकरण में उच्चतम न्यायालय के फैसले को उद्धृत किया है जिसमे कुछ किस्म की भाषा अपमानजक, असुविधाजनक और सरदर्द वाली होने के ये बोलने की अनुचित पाबंदी नहीं हो सकती है।

सूचना प्रौद्योगिकी कानून 2000 की धारा 66ए का पुनर्जन्म

केरल सरकार ने खुद ही प्रेस विज्ञप्ति में स्वीकार किया है कि उच्चतम न्यायालय द्वारा सूचना प्रौद्योगिकी कानून, 2000 की धारा 66ए को निरस्त करने से उत्पन्न रिक्तता को भरने के लिये ही यह नया प्रावधान लाया गया है।

याचिकाओं में इस तथ्य को प्रमुखता से उठाया गया है कि इस कानून में प्रयुक्त शब्दावली कुल मिलाकर इस प्रावधान में अस्पष्टता है और इस अपराध के दंड में धारा 66ए और केरल पुलिस कानून की धारा 118(डी) जैसी ही समानता है जिसे भी श्रेया सिंघल मामले में निरस्त कर दिया गया था।

कानून के दायरे से बाहर है

याचिकाओं में इसे चुनौती देने की एक और वजह यह बताई गयी है कि किस तरह यह प्रावधान केरल पुलिस कानून के उद्देश्य के अनुरूप नहीं है। केरल पुलिस कानून की परिभाषा के अनुसार यह कानून राज्य में पुलिस बल को नियंत्रित करने और शासित करने के लिये है। याचिका में कहा गया है कि एक निजी अपराध को एक ऐसे कानून के तहत दंडित करना, जिसका मकसद पुलिस बल को नियंत्रित करना है, विधायिका के अधिकार के दायर से बाहर है।

इस मामले में पहली याचिका भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष के सुरेन्द्रन ने अधिवक्ता पी श्रीकुमार और अटार्नीज एलायंस, कोच्चि के अधिवक्ताओं के माध्यम से दायर की है।

दूसरी याचिका यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रण्ट (यूडीएफ) के नेताओ शिबू बेबी जॉन, एनके प्रेमचंद्रन और अजीज ने अधिवक्ता संतोष मैथ्यू और नायनन एंड मैथ्यू एडवोकेट्स, कोच्चि के माध्यम से दायर की हैं।

शेष याचिकायें दिल्ली स्थित अधिवक्ता जोजो जोस ने एल. एक्सपर्टियंस के अधिवक्ताओं जॉनसन गोमेज और गजेन्द्र सिंह राजपुरोहित के माध्यम से दायर की है जबकि अधिवक्ता एक्टिविस्ट अनूप कुमारन और साफ्टवेयर फ्रीडम लॉ सेन्टर (एसएफएलसी) के अधिवक्ता प्रशांत सुगुंथन और कानून की छात्र नंदिनी प्रवीण ने कालीस्वरम राज एंड एसोसिएट्स, कोच्चि के माध्यम से दायर की हैं।

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Section 118A of Kerala Police Act: 5 grounds of challenge in 5 petitions before Kerala High Court