इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने हाल ही में व्यवस्था दी है कि भारत में सह-जीवन सामाजिक दृष्टि से भले ही स्वीकार्य नहीं हो लेकिन यह कानून के तहत अपराध नहीं है। न्यायालय ने इस बात की पुष्टि की है कि परस्पर सहमति से दो वयस्क एक साथ रहने के लिये स्वतंत्र हैं और किसी भी व्यक्ति को उनके शांतिपूर्ण तरीके से रहने में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है।
उच्च न्यायालय ने कहा कि देश की शीर्ष अदालत ने अनेक फैसलों में इस संबंध में यह कानून प्रतिपादित किया है कि जहां वयस्क लड़का और लड़की अपनी मर्जी से एकसाथ रह रहें हों तो उनके माता पिता सित किसी को भी उनके जीवन में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है।
न्यायालय ने कहा, ‘‘सह-जीवन ऐसा रिश्ता है जिसे भारत में सामाजिक रूप से अभी स्वीकार नहीं किया गया है। लता सिंह बनाम उप्र (2006) मामले में शीर्ष अदालत ने टिप्पणी की थी कि विपरीत लिंगी दो वयस्क का सह-जीवन में रहना किसी भी कानून के तहत अपराध नहीं है, भले ही इसे अनैतिक माना जाता हो।’’
न्यायमूर्ति अंजनी कुमार मिश्रा और न्यायमूर्ति प्रकाश पाडिया की पीठ ने सह-जीवन में रहने वाले एक जोड़े की याचिका पर यह आदेश सुनाया। इस जोड़े ने न्यायालय से यह सुनिश्चित करने का निर्देश देने का अनुरोध किया था कि महिला के परिवार के सदस्य किसी भी तरह से उनके मामले में हस्तक्षेप नहीं करें।
दो विपरीत लिंगी वयस्कों का परस्पर सहमति से एक साथ रहना कोई अपराध नहीं है भले ही इसे अनैतिक माना जाता हो।इलाहाबाद उच्च न्यायालय
याचिकाकर्ता कामिनी देवी ने न्यायालय में कहा था कि उनका परिवार उनकी मर्जी के खिलाफ एक ज्यादा उम्र के व्यक्ति के साथ जबर्दस्ती उनकी शादी कराना चाहता है।
न्यायालय को यह भी बताया गया कि जब इस महिला को सारी स्थिति का पता चला तो उसके पास अपने हित की खातिर अलग रहने के अलावा कोई रास्ता नहीं था और उसने अपनी मर्जी से बगैर की भय तथा दबाव के द्वतीय याचिकाकर्ता अजय कुमार के साथ रहने का निर्णय किया।
याचिकाकर्ताओं के आधारकार्ड से पता चला कि दोनों ही वयस्क हैं।
न्यायालय को यह भी बताया गया कि याचिकाकर्ता पिछले छह महीने से एकसाथ खुशी खुशी जीवन गुजार रहे हैं लेकिन प्रतिवादी परिवार उनसे खुश नहीं है और उन्हें परेशान करने का प्रयास करता रहता है।
यह प्रतिपादित व्यवस्था है कि जब वयस्क लड़का और लड़की अपनी मर्जी से साथ रह रहे हों तो उनके माता पिता सहित किसी को भी इसमें हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है।
न्यायालय ने अपने फैसले में कहा कि पेश रिकार्ड के अनुसार यचिकाकर्ताओं ने 17 मार्च, 2020 को फर्रूखाबाद जिले के जहांगज के पुलिस अधीक्ष के पास इस बारे में शिकायत की थी और समुचित सुरक्षा प्रदान करने का अनुरोध किया था लेकिन उनकी शिकायत पर आज तक कोई कार्रवाई नही की गयी।
उच्च न्यायालय ने इस तथ्य के मद्देनजर याचिकाकर्ताओं को उनके अनुरोध करने पर पुलिस सुरक्षा प्रदान कने का आदेश दिया।
न्यायालय ने कहा, ‘‘अगर याचिकाकर्ताओं के शांतिपूर्ण में किसी प्रकार का व्यवधान डाला जाता है तो याचिकाकर्ता फर्रूखाबाद जिले के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक अर्थात द्वतीय प्रतिवादी से कंप्यूटर से निकाली गयी इस आदेश की स्व-हस्ताक्षरित प्रति के साथ सपंर्क करेंगे जो उन्हें तत्काल सुरक्षा प्रदान करेंगे।’’
हालांकि, न्यायालय ने स्पष्ट किया कि प्रतिवादी परिवार के सदस्य इस आदेश को वापल लेने के अनुरोध के साथ आवेदन दायर करने के लिये स्वतंत्र होंगे अगर रिकार्ड मे पेश दस्तावेज फर्जी हुये।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने हाल ही में व्यवस्था दी थी कि किसी भी धर्म के व्यक्ति के साथ अपनी इच्छा से रहना जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार है।
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