कर्नाटक उच्च न्यायालय ने हाल ही में व्यवस्था दी कि पेंशन न तो इनाम है और न ही कृपा या एैच्छिक भुगतान लेकिन यह प्रत्येक कर्मचारी का अपरिहार्य अधिकार है।
न्यायमूर्ति एम नागप्रसन्ना की एकल पीठ ने कहा है कि कर्मचारियों के सेवानिवृत्त होने पर उसे देय पेंशन संविधान के अनुच्छेद 300-ए के अंतर्गत संपत्ति और संविधान के अनुच्छेद 21 में प्रदत्त आजीविका का मौलिक अधिकार है। इसलिए इसके हिस्से से भी कर्मचारी को वंचित किया जाना स्वीकार नहीं किया जा सकता।
‘‘कानून के अनुसार के अलावा इसके किसी भी हिस्से से वंचित करना स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि पेंशन न तो इनाम है, न कृपा या एैच्छिक भुगतान है लेकिन यह नियमों के अनुसार कर्मचारी का एक अपरिहार्य अधिकार है। सेवा समाप्त होने पर मिलने वाले लाभ सेवानिवृत्त कर्मचारी को बगैर किसी अभाव के स्वतंत्र रूप से आत्म सम्मान के साथ जीने की आजादी प्रदान करने में मददगार होते हैं। आजीविका के ऐसे अधिकार से वंचित करने से पेंशनर की जिंदगी कष्टमय हो जायेगी।’’
उच्च न्यायालय ने राज्य के स्वामित्व वाली कर्नाटक पावर ट्रांसमिशन कार्पोरेशन लि (केपीटीसीएल) के सेवानिवृत्त कर्मचारी को राहत प्रदान करते हुये ये टिप्पणियां कीं। इस कर्मचारी को 21 साल की नौकरी के बाद सेवानिवृत्त होने पर मिलने वाले लाभ से वंचित कर दिया गया था।
इस प्रतिष्ठान के कर्मचारी थिमैया की दो दशक पुरानी कानूनी लड़ाई उस समय शुरू हुयी जब उसे कदाचार और चोरी के आरोप में केपीटीसीएल ने बगैर किसी जांच के 24 मई, 1999 को सेवा से हटा दिया था।
इसके बाद, थिमैया कई बार अदालत गया क्योंकि कर्नाटक पावर ट्रांसमिशन कार्पोरेशन लि ने उसकी पेंशन और दूसरे लाभ रोक लिये थे। अदालत ने अप्रैल, 2013 में केपीटीसीएल पर 10,000 रूपए का जुर्माना लगाते हुये उसे पेंशन के नियमों के अनुसार कार्यवाही शुरू करने का निर्देश दिया था। इसके बाद, कार्पोरेशन ने दो मई, 2015 के एक आदेश के माध्यम से अनुशासन कार्यवाही खत्म कर दी लेकिन उसकी पेंशन जारी नहीं की।
थिमैया ने इस संबंध में कंपनी को जुलाई, 2017 में प्रतिवेदन दिया जिसमें कहा था कि वह 77 साल का हो चुका है और गिरती सेहत के कारण उसे अपने खर्चो को पूरा करने के लिये संघर्ष करना पड़ रहा है। हालाकि, उसके प्रतिवेदन पर विचार नही किया गया। इस वजह से थिमैया ने फिर से उच्च न्यायालय में याचिका दायर की।
थिमैया का प्रतिनिधित्व कर रहे अधिवक्ता ने दलील दी कि केपीटीसीएल की कार्रवाई पूरी तरह से बेबुनियाद है क्योंकि उन्होंने खुद ही याचिकाकर्ता के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्यवाही खत्म की थी और उसने ही दूसरे लाभ नहीं बल्कि सिर्फ शत प्रतिशत पेंशन जारी करने का निर्देश दिया था।
न्यायालय में यह दलील भी दी गयी कि केपीटीसीएल को याचिकाकर्ता के सेवा समाप्ति के लाभों को रोकने का कोई आदेश दिया गया था।
केपीटीसीएल ने कार्पोरेट कार्यालय के पास याचिकाकर्ता की संबंधित फाइल लंबित होने के आधार पर इन लाभों का भुगतान नही करने को न्यायोचित ठहराने का प्रयास किया और कहा कि इसी वजह से इन लाभों को अभी जारी किया जाना है क्येांकि यह स्पष्टीकरण मांगा गया है कि क्या वे 1998 में हुयी चोरी की वजह से गंवाई गयी सामग्री को बट्टेखाते में डाल सकते हैं या नहीं।
इस मुद्दे पर विचार करने से पहले न्यायालय ने इस वाद के संदर्भ में विलियम शेक्सपीयर की हेनरी VIII के अंश को थोड़े बदलाव के साथ उद्धृत किया।
न्यायालय ने काव्यात्मक शैली में कहा, ‘‘मैंने जितनी लगन से अपने राजा की सेवा की, अगर उससे आधी लगन से अपने ईश्वर की सेवा की होती तो मैं गरीबी के दुर्दिनों में नहीं पहुंचता, यही इस याचिका में याचिकाकर्ता की वेदना है जो 21 साल की सेवा के बाद अवकाश ग्रहण की आयु पर पहुंचने के बाद मिलने वाले लाभ मांग रहा है।’’
इस मामले के तथ्यों के अवलोकन के बाद न्यायालय ने टिप्पणी की कि केपीटीसीएल ने बगैर किसी न्यायोचित कारणों के याचिकाकर्ता के सेवानिवृत्ति के लाभों को जारी करने मे कल्पना से कहीं ज्यादा विलंब किया है।
पीठ ने याचिकाकर्ता को सेवा खत्म होने पर देय लाभों के भुगतान के बारे में निर्णय लेने में केपीटीसीएल द्वार विलंब किये जाने को गंभीरता से लेते हुये कहा कि दूसरे लाभों के साथ 2016 से पूरी पेंशन का भुगतान रोकना किसी भी तरह से न्यायोचित नहीं माना जा सकता।
न्यायालय ने यह टिप्पणी भी की कि केपीटीसीएल संविधान के अनुच्छेद 12 के अंतर्गत राज्य है और इसलिए अपने एक कर्मचारी को इस तरह से अधर में छोड़ना राज्य के रूप में उसकी स्थिति के अनुरूप नहीं है।
न्यायालय ने कहा, ‘‘इसलिए, यह आवश्यक है कि याचिकाकर्ता को देय सारे आर्थिक लाभ ब्याज सहित उसे देने तथा अपने कर्मचारी को परेशान करने के कारण उस पर अनुकरणीय जुर्माना लगाने का आदेश दिया जाये और एक बार फिर अब उसे सारे लाभ जारी करने का आदेश दिया जाये।’’
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Pension is neither bounty nor charity but an indefeasible right of an employee: Karnataka High Court