बॉम्बे हाईकोर्ट ने सोमवार को एक जनहित याचिका पर विचार करने से इनकार कर दिया, जिसमें कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न की रोकथाम अधिनियम (POSH अधिनियम) के तहत निजी कंपनियों द्वारा स्थापित आंतरिक शिकायत समिति (ICC) के सदस्यों की सुरक्षा के लिए दिशा-निर्देश की मांग की गई थी।
मुख्य न्यायाधीश (सीजे) दीपांकर दत्ता और न्यायमूर्ति एमजी सेवलीकर की खंडपीठ ने याचिकाकर्ता आभा सिंह को इसके बजाय सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाने का सुझाव दिया।
खंडपीठ ने ऐसा करते हुए महाभारत में भीष्म पितामह के चरित्र की तुलना की, जो एक शक्तिशाली व्यक्ति होने के बावजूद द्रौपदी के निर्वस्त्र होने पर असहाय थे।
सीजे दत्ता ने कहा, "क्या आपने महाभारत पढ़ा या देखा है? उसमें भीष्म पितामह के पास कई शक्तियां थीं। लेकिन जब द्रौपदी के चीरहरण की घटना हुई, तो वह अपनी किसी भी शक्ति का उपयोग नहीं कर सका। हम भीष्म के समान हैं, अपनी शक्तियों का प्रयोग हर जगह नहीं कर सकते। हम भी किसी के अधीन हैं।"
सिंह ने न्यायालय से निर्देश मांगा था कि आईसीसी के सदस्यों को कुछ सुरक्षा उपायों वाले सार्वजनिक अधिकारी के रूप में माना जाए ताकि ऐसे सदस्य बिना किसी डर और पक्षपात के कार्य कर सकें।
कोर्ट की टिप्पणी तब आई जब बेंच ने पहले की सुनवाई में कहा था कि क्या कोर्ट जनहित याचिका में प्रार्थना की अनुमति दे सकता है क्योंकि यह कानून बनाने के बराबर होगा, जो कि विधायिका का कार्य है।
याचिका में कहा गया है कि ICC के सदस्यों को कंपनी के पेरोल पर रहते हुए यौन उत्पीड़न की शिकायतों पर निर्णय लेने का वैधानिक कर्तव्य सौंपा गया है।
यह हितों का एक गंभीर टकराव पैदा कर सकता है और सदस्यों को इस डर से निष्पक्ष और निष्पक्ष निर्णय लेने से रोक सकता है कि यदि किसी सदस्य ने कंपनी के वरिष्ठ प्रबंधन की इच्छा के विरुद्ध कोई निर्णय लिया है, तो वह उत्पीड़न और लक्ष्यीकरण के लिए अतिसंवेदनशील होगा।
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