वादकरण

सांसदो-विधायको के खिलाफ मामलो की सुनवाई कर रही अदालतें स्पष्ट आवेदन के बगैर ही गवाहों को संरक्षण प्रदान कर सकती हैं: एससी

Bar & Bench

उच्चतम न्यायालय ने वर्तमान और पूर्व सांसदों-विधायकों से जुड़े आपराधिक मामलों की सुनवाई कर रही निचली अदालतों को निर्देश दिया है कि वे संरक्षण के लिये आवेदन के बगैर ही गवाहों को संरक्षण प्रदान करने पर विचार कर सकती हैं।

न्यायमूर्ति एनवी रमना, न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति अनिरूद्ध बोस की तीन सदस्यीय पीठ ने इसी सप्ताह भाजपा नेता और अधिवक्ता अश्विनी कुमार उपाध्याय की याचिका पर सुनवाई के दौरान इस संबंध में आदेश पारित किया। उपाध्याय ने इस याचिका में सांसदों और विधायकों के खिलाफ लंबित आपराधिक मुकदमों की सुनवाई के लिये विशेष अदालतें गठित करने का अनुरोध किया है।

इस मामले में न्याय मित्र की भूमिका निभा रहे वरिष्ठ अधिवक्ता विजय हंसारिया ने पीठ से अनुरोध किया था कि विशेष अदालत के कार्यस्थल से दूर रहने वाले गवाहों को संरक्षण प्रदान करने की आवश्यकता पर विचार किया जाये।

पीठ ने इस अनुरोध से सहमति व्यक्त की और आदेश दिया,

‘‘इस न्यायालय द्वारा महेन्द्र चावला बनाम भारत संघ (2019) मामले में स्वीकृति दी गयी गवाह संरक्षण योजना, 2018 केन्द्र, राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों में सख्ती से लागू की जानी चाहिए। ऐसे मामलों में गवाहों की सुरक्षा के खतरे को ध्यान में रखते हुये निचली अदालतें संरक्षण के लिये स्पष्ट आवेदन के बगैर भी ऐसे गवाहों को संरक्षण प्रदान करने पर विचार कर सकती हैं।’’

न्यायालय ने विशेष अदालतों से कहा कि एशियन रिसर्फेसिंग ऑफ रोड एजेन्सी प्रा लि बनाम सीबीआई मामले मे उच्चतम न्यायालय के 2018 के आदेश का सख्ती से पालन करें। इस आदेश में कहा गया था कि ‘‘उच्च न्यायालय सहित किसी भी अदालत द्वारा लगाई गयी रोक छह महीने में स्वत: ही खत्म हो जाती है अगर हमारे फैसले के अनुसार छह महीने के भीतर ही ठोस कारणों से इसे बढ़ाया नहीं गया।’’

एशियन रिसर्फेसिंग मामले में शीर्ष अदालत ने कहा था कि अगर इस रोक को बढ़ाया नहीं जाता या इसके लिये आवेदन नहीं किया जाता है तो छह महीने की अवधि खत्म होने पर सुनवाई स्वत: ही शुरू हो जायेगी।

सांसदों-विधायकों के मुकदमों की सुनवाई कर रही अदालतों में अनावश्क विलंब से बचने के इरादे से उच्चतम न्यायालय ने इनमें ‘अनावश्यक रूप से सुनवाई स्थगित करने’ से गुरेज करने का निर्देश दिया है।

इसे दोहराते हुये पीठ ने स्पष्ट किया कि इसमें सारे निर्देश ‘पीठासीन और पूर्व सांसदों-विधायकों’ पर लागू होंगे।

न्याय मित्र हंसारिया ने न्यायालय को सूचित किया था कि हालांकि कुछ अदालतों में वीडियो कांफ्रेंसिंग की सुविधा उपलब्ध है लेकिन ‘यह गवाहों के साक्ष्य रिकार्ड करने के लिये पर्याप्त नहीं है।’’

न्यायालय में यह भी कहा गया था कि अधिकांश राज्यों ने स्पष्ट किया है कि उनके पास वीडियो कांफ्रेंसिंग के लिये बुनियादी जरूरतों को अपग्रेड करने के लिये आर्थिक संसाधन नहीं हैं। इस संबंध में हंसारिया ने सुझाव दिया था कि केन्द्र सरकार को इसें कुछ वित्तीय सहायता देने का निर्देश दिया जा सकता है।

सालिसीटर जनरल तुषार मेहता को विशेष कानूनों के तहत इन विधि निर्माताओं के खिलाफ लंबित मामलों और प्रत्येक जिले में कम से कम एक वीडियो कांफ्रेंसिंग सुविधान के लिये धन उपलब्ध कराने के बारे में न्यायालय को अवगत कराने के लिये 16 सितंबर तक का समय दिया गया था।

मेहता को इस बारे में जानकारी उपलब्ध कराने के लिये अब और वक्त दे दिया गया है।

हंसारिया ने सुझाव दिया दिया कि ऐसी प्रत्येक अदालत में एक नोडल अभियोजन अधिकारी नियुक्त किया जाना चाहिए । यह अधिकारी सुनिश्चित करेगा कि ऐसे सांसद-विधायक को सम्मन जाये और सुनवाई के लिये निर्धारित तारीख पर वह उपस्थित हों तथा मामले सही तरीके से आगे बढ़ें।

जहां तक राज्य विशेष का संबंध है तो केरल सरकार और केरल उच्च न्यायालय के वकील का कथन परस्पर विरोधाभासी था। उच्च न्यायालय के वकील का कहना था कि आपराधिक वारंट की तामील के मामले में राज्य सरकार सहयोग नहीं कर रही है।

उच्चतम न्यायालय ने अब केरल उच्च न्यायालय के वकील को ऐसे सभी वारंट की सूची केरल के पुलिस महानिदेशक को सौंपने का निर्देश दिया है। साथ ही पुलिस महानिदेशक को इस मामले की सुनवाई की अगली तारीख पर इस सूची के बारे में रिपोर्ट पेश करने की हिदायत दी गयी है।

इस मामले में अब तीन सप्ताह बाद आगे सुनवाई होगी।

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