बिलासपुर के बाहरी इलाके में स्थित एक रामशकल भवन में ‘‘कानूनी सहायता दल‘’ जनहित
संगठन का कार्यालय है । यह आश्चर्य की बात है इसने कैसे सूरज और बारिश को झेला
और इन सभी वर्षाें के बाद मजबूत रहने में कामयाब रहा है । इसी तरह की एक घटना में
जब एक बार आप सुधा भारद्वाज से मिलते हैं तो आप खुद से पूछते हैं कि 25 साल के
बेहतर हिस्से के लिए अधर्म की ताकतों से लडने के बाद क्या हो रहा है और पथ में कई
लडाईयां हारी हैं ।
खासकर जब आपको पता चलता है कि वह कानपुर में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान से स्नातक
हैं ।
‘‘मेरी मां बहुत समाजवादी थी और मैं अपने माता पिता की एकमात्र संतान थी । आज भी मैं
गर्व से कहती हूं कि मैं जेएनयू में एक प्राध्यापक थीं । (हंसते हुए) मैं हमेशा ऐसे माहौल में
पली-बढी हूं जहां हर कोई सामाजिक मुद्दों को लेकर चिंतित था ।’’
श्रमिको के विरोध का उनका पहला झुकाव उन्नाव स्थित कारखाने में था जहां छत के पंखे
बनाये गये थे ।
‘‘ऐसे बदली कर्मचारी थे जिन्हें एक साथ महीनों तक भुगतान नहीं किया गया था और उन्होंने
प्रबन्ध अधिकारी को घेरा था । उन्हें वास्तव में गोली मार दी गई थी यह एक अन्य
जलियावाला बाग की तरह था । यह एक ऐसी घटना थी जिसने मुझे काफी हद तक हिला
दिया था ।’’
जबकि इससे पहले कार्यकर्ता को जागृत किया गया था, यह एक और घटना थी जिसने उसे
पूरे देश में श्रमिको के कारण पूरी ईमानदारी से समर्पित करने का निर्णय लिया ।
‘‘मैं छुट्टियों के दौरान दिल्ली आई थी और छात्रो के एक दिलचस्प समूह जिनमें से कुछ
एम्स के थे, कुछ जेएनयू से थे से मिली थी । सन् 1982 में दिल्ली में विषाल निर्माण कार्य
शुरू हुआ, जो कि अधिकांश प्रवासी मजदूरो द्वारा किया गया था । इसलिए हम वहां जाते थे
और उनसे मिलकर उनकी समस्याओं का पता लगाते थे।
मुझे एक घटना याद है, जब श्रमिकों में से एक बहुत मुखर था । उन्होने कहा कि वे चाहते
हुए भी घर नहीं जा सकते थे, क्योंकि उनमें से अधिकांश बंधुआ थे । अगले दिन हम वहां
गये, वह वहां नहीं था । यह वह लम्हा था जिसने हमें स्थिति की गम्भीरता को लेकर चोट
मारना शुरू कर दिया था । हम सिर्फ जानकारी जुटाने के लिए वहां गये, लेकिन हमारे
हस्तक्षेप से शायद वह व्यक्ति अपनी नौकरी या यहां तक कि अपनी जान गंवा सकता है ।
यह सहानुभूतिपूर्ण होने के लिए पर्याप्त नहीं है । यदि आप व्यवस्थित करने जा रहे हैं, जो कि
बहुत ही कठिन कार्य है, तो लोग किसी समय इसके लिए कडी कीमत चुकायेंगे ।’’
इन भागो में छत्तीसगढ मुक्ति मोर्चा के संस्थापक शंकर गुहा नियोगी विशेष रूप से मजदूरों
के लिए एक नायक हैं । वह पूरे राज्य में सफल विरोध प्रदर्शन शुरू करने के लिए जिम्मेदार
थे औ यह वह था जिसने भारद्वाज के जुनून को दिशा दी ।
‘‘वर्ष 1986 में मैंने इस संघ में एक शिक्षक के रूप में शामिल होने का फैसला किया था ।
1990 तक भिलाई में हालातों की सरगर्मी शुरू हो गई थी, जहां संविदा श्रमिको का एक बडा
आंदोलन शुरू हो गया था । वे खराब परिस्थितियों में दिन में 12-14 घंटे काम करते थे ।
जिन्होंने बहुत सारी गुंडागर्दी का सामना करने की कोशिश की । उस समय तक नियोगी जी
ने मुझे भिलाई में आंदोलन में शामिल होने के लिए कहा’’
बस जब हालात साथ होने लगे तो नियोगी की हत्या कर दी गई । विरोध प्रदर्शन होने की
स्थिति में किसी का सहारा नहीं होने से कारखानो ने श्रमिको को निकालना शुरू कर दिया
और इस तरह एक अधिवक्ता के रूप में भारद्वाज की यात्रा शुरू हुई ।
‘‘यह वह समय था जब मैंने संघ के लिए कानूनी कार्य करना शुरू किया । मैं सामग्री एकत्रित
कर रही थी और वकीलो के पास जा रही थी, क्योंकि मैं उन कुछ लोगो में से एक थी जो
अंग्रेजी बोल सकते थे । मैंने उच्च न्यायालय और औद्योगिक न्यायाधिकरण में बहुत समय
बिताया । वहां पर बहुत सी घटनाएं घटित हो रही थी - 17 हत्याओ की एक न्यायिक जांच
जो हुई थी, नियोगी की हत्या की जांच सीबीआई को सौंपने के लिए एक बडा संघर्ष था ।
यह कठिन समय था, क्योंकि बहुत कम अधिवक्ता थे जो हमारे प्रति सहानुभूति रखते थे ।
उनमें से अधिकांश बहुत सारा पैसा मांग रहे थे, जो हमारे पास नहीं थे । कई बार, चूंकि
विरोधी इतने शक्तिशाली थे, इसलिए हम हैरान रह गये कि क्या हमारा अधिवक्ता हमारी तरफ
था ।
उस समय श्रमिकों ने मुझसे कहा आप अधिवक्ता क्यों नहीं बनते वैसे भी आप वकीलों को
मामला समझाने के लिए बहुत काम करती हो । इसलिए मैं 40 साल की परिपक्व आयु में
अधिवक्ता बन गई और 16 सालो से एक जैसी ही हूँ।’
एक बार जब उन्होने छत्तीसगढ उच्च न्यायालय में वकालत शुरू की तो उन्होने पाया कि कई
कानून लागू किये जा रहे थे । विषेष रूप से छत्तीसगढ विशेष सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम
(सीएसपीएसए)
‘‘पहली बात इस अधिनियम के तहत अपराध इतनी अस्पष्ट रूप से परिभाषित किया गया है।
आपके पास ‘‘सरकार का विरोध करने की प्रवृति’’ जैसे खोखले शब्द हैं जो बहुत आत्मनिष्ठ
हैं। दूसरे जब आपके पास गैरकानूनी गतिविधियों को रोकने के लिए पहले से ही यूएपीए जैसा
केन्द्रीय कानून है, तो यह कानून बहुत अधिक अस्पष्ट शब्द है और यूएपीए की तुलना में कम
सुरक्षित है । यूएपीए में मेन्स रिया एलिमेन्ट को बहुत स्पष्ट रूप से परिभाषित किया गया है,
जिसमें जानबूझकर और स्वेच्छा से किसी गैरकानूनी संगठन की सहायता और उसको बढावा
देना है । वही आवश्यकता सीएसपीएसए मैं मौजूद नहीं है ।’’
इन कानूनों के परिणामस्वरूप हाल के दिनो मे, वहां कार्यकर्ताओ, पत्रकारो और यहां तक कि
वकीलों का भी उत्पीडन हुआ है ।
और भारद्वाज के अनुसार, न्यायपालिका ने परिस्थिति को कम करने के लिए बहुमूल्य काम
किया है ।
कोई भी जमानत की बहस नहीं करता है, क्योंकि उन्हें कभी भी जमानत नहीं मिलती है, उच्च
न्यायालय से भी नहीं
‘‘बस्तर में आपराधिक न्याय प्रणाली के लिए एक दुखद बात यह है कि कार्यपालिका इतनी
प्रबल है कि न्यायपालिका वास्तव में अपनी भूमिका निभाने में सक्षम नहीं है ।
न्यायपालिका केवल लोगो के अधिकारो की रक्षा कर सकती है यदि वह स्वतंत्र रूप् से कार्य
करने में सक्षम है । यदि आप बस्तर की अधिकांश निचली अदालतों को देखते हैं तो कोई भी
आरोपों पर बहस नहीं करता है । जो आरोप लगाये गये हैं वे पुलिस द्वारा लगाये गये हैं ।
कोई भी जमानत पर बहस नहीं करता है क्योंकि उन्हें कभी भी जमानत नहीं मिली है, उच्च
न्यायालय से भी नहीं ।
ऐसे मामले हैं जहां लोग बिना चार्जशीट में नाम होने के बावजूद भी 3-4 साल जेल में रहे
हैं। नक्सल का ‘न’ शब्द सुनते ही सब कुछ अस्वीकार हो जाता है (नक्सल में ‘‘न’’ आपकी
जमानत खारिज करने के लिए पर्याप्त है)। समस्या यह है कि अगर वहां आम लोग पकडे
जाते हैं, तो आप इसके बारे में क्या करने जा रहे हैं?
राज्य की यह स्थिति आदिवासियों को यह महसूस कराती है कि वे कहीं नहीं जा सकते हैं।
एक स्थिति के बाद लोगों को ऐसा लगता है कि उनके पास कोई सहारा नहीं है । यह बहुत
गम्भीर स्थिति है ।’’
यह न केवल न्यायपालिका के लिए महत्वपूर्ण है, बस्तर क्षेत्र के कुछ अधिवक्ता भी इन हालातों
में मदद नहीं कर रहे हैं । कुछ महीने पहले बार असोशिएशन ऑफ बस्तर ने वस्तुतः
आदिवासी कारण से सहानुभूति रखने वाले अधिवक्ताओं को जगदलपुर लीगल एड ग्रुप
(जगलग) से बाहर कर दिया था।
वह एक तस्वीर पेश करती है कि परेशान जिले में हालात कैसे काम करते हैं और हालात
बहुत अच्छे नहीं हैं ।
‘‘बस्तर की अदालतों में एक पेशेवर वकील चार्जशीट और बरी/दोषी होने के बीच उपस्थित
होता है । आमतौर पर वे अपने मुवक्किलों से मिलने के लिए जेल नहीं जाते हैं । बहुत सारे
पूर्व अत्याचारों की जांच होती है, लोगों को हिरासत में रखा जाता है और प्रताडित किया
जाता है, जहां वकील अदालत के सामने नहीं होते हैं, लेकिन पुलिस के सामने होते हैं और
कोई भी पुलिस को संभालना नहीं चाहता । जब वे अत्याचार के मामलों में एफआईआर दर्ज
करते हैं और बंदियों के ठिकानों का पता लगाने की कोशिश करते हैं तो उन्हें परेशान किया
जाता है । बस्तर पुलिस नहीं चाहती की वकील इस काम को करें ।’’
प्रारम्भ में स्थानीय अधिवक्ता कह रहे थे कि हम (जगलग के सदस्य) फर्जी वकील थे ।
लेकिन मैं एसपी के पास गया और उन्हें अपना परिचय दिखाया । इसलिए आखिरकार यह
पुलिस ही है जो दबाब डाल रही है और बार के कुछ सदस्यों को लग रहा था कि वह घुटने
टेक देगा । वे सामाजिक एकता मंच का हिस्सा बन गए हैं जो नक्सलवाद के खिलाफ एक
प्रेरक संगठन है जो कि सही है । लेकिन वे किसी को भी पुलिस की ज्यादी के मुद्दे को
उठाने की अनुमति नहीं दे रहे हैं ।
उनकी गतिविधियों में राज्य पुलिस के शामिल होने की खबरों के बाद सामाजिक एकता मंच
अब चुप है । लेकिन यह सिर्फ बर्फ की शिला को छूना है ।
साक्षात्कार के दौरान बीच मे ं वह एक मुवक्किल की शंकाओं को दूर करने के लिए रूकती हैं।
उनकी जमीन पर राज्य सरकार ने ‘‘विकास’’ की आड में अवैध रूप से कब्जा कर लिया है ।
नया रायपुर विकास प्राधिकरण (एनआरडीए) जो कि छत्तीसगढ के निर्माण के बाद बना है, जो
नई राजधानी बनाने की एक विस्तृत योजना है । भारद्वाज ने खुलासा किया कि इस समय 41
गावों में 120 भूमि अधिग्रहण चल रहे हैं और ग्रामीणों की भूमि का अधिग्रहण पुस्तक द्वारा नहीं
किया जा रहा है ।
‘‘सबसे पहले योजना स्वयं दोषपूर्ण है, क्योंकि वे ग्रामीण क्षेत्रों का जबरन शहरीकरण कर रहे
हैं। ग्रामीण क्षेत्रों का विकास तभी संभव है जब लोग भी विकसित हो रहे हों । लेकिन, वे एक
में जमीन छीन रहे हैं और इसे वर्ग फुट के भाव से बेच रहे हैं । वे खास तौर से ग्रामीण
भूमि को अचल सम्पत्ति में बदल रहे हैं पैसों का व्यापार कर रहे हैं ।
वे यह भूमि निजी संस्थाओं को दे रहे हैं, जो इन भूमियों पर गोल्फ कोर्स, पांच सितारा होटल
और मंत्रियों के लिए बंगले बना रहे हैं । ये सभी सार्वजनिक उद्देश्य के तहत बनाये जा रहे
हैं । संविधान के भाग XI की शुरूआत के बाद भूमि अधिग्रहण करने के लिए आपके पास
लोकप्रिय प्रतिनिधित्व होना चाहिए । लेकिन यहां कोई प्रतिनिधित्व नहीं है।’’
राज्य सरकार ने परिकल्पित प्रक्रिया को गतिरोध करने के लिए बाहरी साधनों का सहारा लिया
है ।
‘‘वर्ष 2002, उन्होंने उस क्षेत्र में जमीन की निजी बिक्री और खरीद पर रोक लगा दी । आप
अपनी जमीन एनआरडीए को ही बेच सकते थे । उन्होंने आपातकालीन खण्ड के रूप में
पंचायत अधिनियम की धारा 17 का उपयोग करके देशवासियों को तोड दिया है । जो
आपत्तियों की सुनवाई को निर्धारित करता है उसे धारा 5ए के तहत उन्होने उतावलेपन में दूर
किया। यह जबरन शहरीकरण और कृषि भूमि को अचल सम्पत्ति में परिवर्तत करने की एक
धुन है ।’’
वह इन अपराधों के गम्भीरता का खुलासा करती है और वे कैसे संविधान का उल्लंघन करते
हैं ।
‘‘इस राज्य के लोगों को आम तौर अमीर धरती के गरीब लोगों के रूप् में जाना जाता है ।
आपको इस बारे में सोचना होगा कि आखिर इस मामले में विरोधाभास क्यों है । छत्तीसगढ
का 60 प्रतिशत क्षेत्र अनुसूिचत है, इसलिए एक बदलाव के लिए हम आदिवासियों और शर्मिकों
के पक्ष में क़ानूनों को दृढता से लागू क्यों नहीं कर सकते हैं? उदाहरण के लिए सम्पूर्ण राज्य
में पंचायती (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम का उल्लंघन किया जा रहा है।’’
‘’यदि आप संविधान के 243 जेडसी को देखते हैं तो उसमें यह कहना है कि भाग IX में कुछ
भी अनुसूचित क्षेत्रों पर लागू नहीं होगा जब तक कि संसद एक कानून पारित नहीं करती है ।
वहां नगरपालिका (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) विधेयक था, जिसे 2001 में राज्यसभा में
पारित किया गया था, लेकिन लोकसभा में चूक हो गई है । इसलिए यह एक संवैधानिक बाधा
है कि आप अनुसूचित क्षेत्रों में नगरपालिका नहीं बना सकते । यदि आप निश्चित करते हैं कि
इसके बावजूद ऐसा हो सकता है तो संविधान कहां है?
आप एक वेदांता दे रहे हैं जो कि एक कम्पनी है जो डेढ लाख करोड रूपये की दोषी है, यहां
सोने की खान है । इसी समय एक किसान जो 40000 रूपये के कर्ज के लिये खुद को मार
रहे हैं ।’’
तमाम बाधाओं के बावजूद बडे पैमाने पर अन्याय के बावजूद सुधा भारद्वाज के शब्दों को कार्याें
मे कार्याें में स्पष्टतः बिना चापलूसी चुनौती का संकेत है ।
वह निंदक है, जबकि यह सब कुछ सुर्खियों में है । लेकिन साथ ही वह आशावादी है ।
‘‘बहुत स्पष्ट शब्दों में यह मेरा वकालत का पेशा नहीं है जो मुझे आशा देता है, यह तो लोग
हैं जो लड रहे हैं । लडाई दो प्रकार की होती है - कागज की लडाई और सडक की
लडाई। यदि आप केवल कागज पर भरोसा करते हैं, तो यह काम करने वाला नहीं है, आपको
जमीनी स्तर पर आंदोलन करना होगा । जो कुछ मैं कह रही हूँ वह इस उम्मीद में है कि
हमारी कानूनी रणनीति लोगों के संघर्षों के साथ परिलक्षित हो सकती है । मुझे नहीं लगता
कि सिर्फ न्यायालय में जाने से हालात बदलने वाले हैं ।’’
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