इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने पिछले सप्ताह तीन आरोपियों को बरी कर दिया, जिन्हें 1980 में हुई एक हत्या के लिए दोषी ठहराया गया था [राजेश एवं अन्य बनाम राज्य]।
न्यायमूर्ति सिद्धार्थ वर्मा और न्यायमूर्ति विनोद दिवाकर की खंडपीठ का मानना था कि अभियोजन पक्ष आरोपी के खिलाफ संदेह से परे मामला साबित करने में असमर्थ था।
इसलिए, इसने मुजफ्फरनगर ट्रायल कोर्ट के 1982 के फैसले को खारिज कर दिया, जिसमें तीनों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी।
कोर्ट ने कहा कि जब भी कोर्ट के मन में संदेह पैदा होता है, तो उस संदेह का लाभ आरोपी के पक्ष में जाना चाहिए।
कोर्ट ने कहा, "हमारा मानना है कि जब अभियोजन पक्ष अपने मामले को उचित संदेह से परे साबित नहीं कर पाया, तो अपीलकर्ताओं को दोषी ठहराना असुरक्षित प्रस्ताव होगा। हमारा मानना है कि जब पूरे साक्ष्य पर विचार करने के बाद कोर्ट के मन में संदेह पैदा हो गया है, तो अपील को स्वीकार किया जाना चाहिए और अपीलकर्ताओं को बरी किया जाना चाहिए।"
मामला 8 जनवरी, 1980 का है, जब मुजफ्फरनगर पुलिस स्टेशन में अजय कुमार के संबंध में एक व्यक्ति की गुमशुदगी की शिकायत दर्ज की गई थी। प्रारंभिक जांच के दौरान, यह पता चला कि कुमार 6 जनवरी, 1980 से घर नहीं लौटा था, जब वह अपने दोस्त राजेश कुमार से मिलने गया था।
एफआईआर में यह भी कहा गया था कि राजेश कुमार भी नहीं मिल पाया। बाद में, गुमशुदगी की रिपोर्ट को भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 364 के तहत अपहरण के मामले में बदल दिया गया।
राजेश को गिरफ्तार कर लिया गया और वह पुलिस को अजय कुमार के शव तक ले गया। कुमार की लाश एक अन्य आरोपी ओमबीर, जो राजेश का दोस्त था, को किराए पर दिए गए कमरे से बरामद की गई। मृतक की गर्दन पर प्लास्टिक की एक पर्ची भी मिली और मृतक के मुंह में एक कपड़े का टुकड़ा भी ठूंसा हुआ मिला।
इसके बाद, आरोपियों के खिलाफ आईपीसी की धारा 302 और 201 के तहत हत्या और सबूतों को नष्ट करने/गायब करने के आरोप भी जोड़े गए।
30 जून, 1982 को ट्रायल कोर्ट ने आरोपियों को दोषी पाया और उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई। इससे व्यथित होकर तीनों ने उच्च न्यायालय में अपनी सजा को चुनौती दी।
उच्च न्यायालय ने कहा कि आरोपी राजेश के बरामदगी बयान में कहीं भी यह संकेत नहीं मिला कि उसने हथियार को छिपाने में अपनी संलिप्तता के बारे में कुछ कहा है।
न्यायालय ने इस तथ्य पर भी ध्यान दिया कि हत्या का मकसद मजबूत नहीं था। इसने यह भी नोट किया कि जिन गवाहों ने आरोपी को आखिरी बार देखा था, उनके साक्ष्य भी विश्वसनीय नहीं थे।
तदनुसार, न्यायालय का मानना था कि अभियोजन पक्ष मामले को उचित संदेह से परे साबित करने में विफल रहा और उसने आरोपी को बरी कर दिया।
वरिष्ठ अधिवक्ता बृजेश सहाय और अधिवक्ता राहुल शर्मा और सुनील वशिष्ठ, और अधिवक्ता डीएन वली, भव्य सहाय, डी सिंघल, एनएन वली, नीरज तोमर, ओम सिंह तोमर, पीएस पुंडीर और पतंजलि मिश्रा अपीलकर्ताओं की ओर से पेश हुए।
उत्तर प्रदेश राज्य की ओर से अतिरिक्त सरकारी अधिवक्ता अमित सिन्हा और अधिवक्ता मयूरी मेहरोत्रा पेश हुए।
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Allahabad High Court acquits three in 44-year-old murder case