
उच्चतम न्यायालय में इस साल जनहित में दिलचस्पी रखने वाले व्यक्तियों और कानून के छात्रों द्वारा बड़ी संख्या में याचिकायें दायर किये जाने पर कानूनी बिरादरी में चर्चा के बीच दिल्ली उच्च न्यायालय ने एक बार फिर जनहित याचिकाओं के मामलों में काफी संयम बरता।
कोविड-19 महामारी से बुरी तरह प्रभावित वर्ष 2020 के दौरान उच्च न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 226 के अंतर्गत अपने अधिकार क्षेत्र के बारे में , विशेषकर जनहित याचिकाओं के मामले में, बार बार दोहराया कि यह असाधारण है और बहुत सामान्य तरीके से इसका इस्तेमाल नहीं किया जा सकता।
न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका के बीच अधिकारों के विभाजन के संवैधानिक प्रावधानों को मजबूती प्रदान करते हुये दिल्ली उच्च न्यायालय अक्सर नीतिगत और कानून बनाने से संबंधित मामलों में दूर रहने की रणनीति अपनाते नजर आया।
उच्च न्यायालय ने कोविड-19 के दौरान स्वास्थ्य कर्मियों को जोखिम और कठिनाई भत्ते के भुगतान के लिये जनहित याचिका खारिज करते हुये कहा, ‘‘अगर कोई कानून है तो न्यायालय निश्चित ही उसे लागू करा सकता है लेकिन न्यायालय कोई कानून या नीति बनाकर उन पर अमल नहीं करा सकता।’’
न्यायालय ने कहा कि इसमें संदेह नही है कि महामारी के दौरान स्वास्थ्य कर्मी बहुत ही सराहनीय काम कर रहे हैं लेकिन संविधान उसे नीतिगत मामलों में कार्यपालिका को निर्देश या सलाह देने या विधायिका के दायरे में आने वाले मामलों में ज्ञान लेने की अनुमति नहीं देता है।
इन्हीं कारणों से दिल्ली में तत्काल लॉकडाउन घोषित करने का निर्देश देने के लिये दायर जनहित याचिका भी उच्च न्यायलय ने अस्वीकार कर दी थी।
दंगा पीड़ितों के लिये अतार्किक और मनमाना मुआवजा घोषित करने के फैसले के खिलाफ दायर जनहित याचिका भी न्यायालय ने यह कहते हुये खारिज कर दी थी कि यह सरकार का नीतिगत मामला हे।
उच्च न्यायालय ने हालांकि जनहित याचिका दायर करने वाले वादकारियों को अपनी समस्याओं के लिये पहले अदालत का दरवाजा खटखटाने की बजाये उन्हें प्रातिवेदन के रूप में इन्हें संबंधित प्राधिकारियों के समक्ष रखने के लिये प्रोत्साहित किया।
उच्च न्यायालय ने खालिस्तान आन्दोलन को कथित रूप से बढ़ावा देने वाले ट्विटर के खिलाफ आपराधिक कार्रवाई के लिये दायर जनहित याचिका पर भी विचार करने से इंकार कर दिया था क्योंकि याचिकाकर्ता ने इस बारे में केन्द्र सरकार को पहले कोई ज्ञापन नहीं दिया था।
पूरे साल, उच्च न्यायालय ने जनहित याचिकायें दायर करने वाले व्यक्तियों के आकलन के मामले में निर्धारित मानकों का सख्ती से पालन किया
न्यायालय ने जब यह पाया कि मुस्लिम विवाह विच्छेद कानून, 1939 की धारा 4 को चुनौती देने वाली व्यक्ति वही है जिसने इससे पहले सैन्यकर्मियों के बारे में जनहित याचिका दायर की थी तो न्यायालय ने याचिकाकर्ता के बारे में जानकारी प्राप्त करने के लिये उसे हलफनामा दाखिल करने का निर्देश दिया।
इसी तरह एक अन्य मामले में, न्यायालय ने एक वकील औरसामाजिक कार्यकर्ता को जनहित याचिकायें दायर करते समय भविष्य में ज्यादा सावधान रहने की हिदायत दी और कहा कि यह आदेश भविष्य में उसके द्वारा दायर की जाने वाली सारी जनहित याचिकाओं के साथ संलग्न किया जाये।
ब्लैकमेल करने वाली जनहित याचिकाओं के मामले में उच्च न्यायालय ने ऐसा करने वालों पर मोटा जुर्माना लगाने में संकोच नहीं किया।
उच्च न्यायालय ने अक्सर यह टिप्पणी की, ‘‘हर व्यक्ति बोगस पीआईएल दायर करने में महारथी है, याचिकाकर्ताओं को पूरी तैयारी करके आना चाहिए। टैक्स का भुगतान नहीं करने वाले व्यक्तियों के खिलाफ आप जनहित याचिका क्यों नहीं दायर करते।’’
न्यायालय ने बगैर किसी ठोस साक्ष्य के ही निर्माण में अवैधता के आरोपों के साथ जनहित याचिका दायर करने वाले एक व्यक्ति पर 25,000 रूपए जुर्माना लगाया। समाचार पत्र की खबर के आधार पर जनहित याचिका दायर करने वाले व्यक्ति पर न्यायालय ने 20,000 रूपए का जुर्माना लगाया।
इसी तरह, न्यायालय ने स्वच्छ और स्वस्थ पर्यावरण की परियोजना पर अमल के लिये केन्द्र सरकार से 70,000 करोड़ रूपए की वित्तीय सहायता दिलाने के लिये जनहित याचिका दायर करने वो व्यक्ति पर 50,000 रूपए जुर्माना लगाया।
वर्ष 2020 के दौरान उच्च न्ययालय ने जनहित याचिकाओं पर विचार करते समय कानूनी रूप से स्वीकार्य कतिपय सिद्धांतों को लागू किया। न्यायालय ने यौनकर्मियों और एलजीबीटी समुदाय के लिये वित्तीय मदद और भोजन के लिये जनहित याचिका पर विचार करने से इंकार किया क्योंकि इसमें समुचित तैयारी का अभाव था।
इसी तरह, महामारी के दौरान किरायदारों के किराये माफ करने के लिये दायर जनहित याचिका भी न्यायालय ने यह कहते हुये ठुकराई की कानूनी दायरे से बाहर किसी भी तरह की दया दूसरों के साथ अन्याय है।
इसी तरह, अधिवक्ताओं को एमएसएमई कानून के दायरे में लाने का अनुरोध उच्च न्यायालय ने इस टिप्पणी के साथ अस्वीकार कर दिया कि जनहित याचिका उपेक्षित वर्ग के लिये थी न कि वकीलों के लिेय जो अपनी समस्यायें उठाने के लिये काफी सक्षम हैं।
न्यायालय ने फीस में रियायत के लिये कानून के एक छात्र की याचिका इस आधार पर अस्वीकार कर दी कि इस तरह की छूट कोई अधिकार नहीं है। न्यायालय ने कहा कि वरिष्ठ अधिकारियों द्वारा सुझाव स्वीकार नहीं किये जाने की वजह से ही जनहित याचिका दायर नहीं की जा सकती।
हालांकि, उच्च न्यायालय ने उन मामलों में हस्तक्षेप करने में संकोच नहीं किया जहां प्राधिकारियों ने ढिलाई दिखाई और ऐसे मामले में महत्वपूर्ण आदेश भी दिये।
न्यायालय ने इस साल फरवरी में दिल्ली के उत्तर पूर्वी इलाके में हुये सांप्रदायिक दंगों के बाद दायर जनहित याचिका पर कई महत्वपूर्ण आदेश और निर्देश दिये।
उच्च न्यायालय ने अपने आदेश में कहा, ‘‘ राज्य के सर्वोच्च पदाधिकारी को प्रत्येक पीड़ित से मिलना चाहिए। जिन परिवारों ने अपने सदस्यों को खोया है उन्हें भरोसा दिलाया जाना चाहिए। साथ ही न्यायालय ने प्राधिकारियों को लगातार सतर्क रहने की हिदायत दी ताकि 1984 के सिख विरोध दंगों जैसे नरसंहार की पुनरावृत्ति नहीं हो।
न्यायालय ने घायलों को सुरक्षित निकालने के लिये ही नहीं बल्कि आवश्यक राहत प्रदान करने के लिये रात्रि कालीन मजिस्ट्रेट भी मनोनीत करने के निर्देश दिये। इन दंगों में विस्थापित हुये परिवारों के लिये छत की व्यवस्था सुनिश्चित करने के दिल्ली सरकार को निर्देश दिये।
इस संबंध में आदेश पारित करने वाले न्यायमूर्ति एस मुरलीधर कुछ समय बाद दूसरी वजहों से सुर्खियों में बने रहे।
कोविड-19 महामारी से बेहाल राजधानी में लाकडाउन के दौरान घरेलू हिंसा की पीडि़तों की सुरक्षा, दूसरे स्थानों से इलाज के लिये एम्स आये मरीजों के रहने और उनकी देखभाल, गरीबों को खाना उपलब्ध कराने, कोविड-19 से जान गंवाने वालों के अंतिम संस्कार , अस्पतालों में मरीजों के लिये पर्याप्त संख्या में बिस्तरों की व्यवस्था, एमसीडी के अस्पतालों के डाक्टरों को वेतन दिलाने सहित ऐसे अनेक महत्वपूर्ण मुद्दों पर उच्च न्यायालय ने अनेक आदेश और निर्देश दिये। न्यायालय ने इन मामलों का स्वत: ही संज्ञान लिया और इनमें आदेश दिये।
कोविड-19 महामारी के दौरान वकीलों को वित्तीय सहायता उपलब्ध कराने के लिये दायर जनहित याचिका की भी उच्च न्यायालय ने निगरानी की। उच्च न्यायालय को दिल्ली बार काउन्सिल ने सूचित किया कि उसने करीब 16,000 वकीलों को आठ करोड़ रूपए से ज्यादा की मदद की है।
उच्च न्यायालय ने एक जनहित याचिका का निबटारा करते हुये कहा कि राजधानी में गैर सहायता प्राप्त निजी स्कूलों ओर केन्द्रीय विद्यालयों को निर्देश दिया कि आन लाइन पढ़ाई के लिये आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के छात्रों को आवश्यक उपकरण उपलब्ध करायें। उच्च न्यायालय ने कहा कि डिजिटल भेदभाव शिक्षा के अधिकार कानून और संविधान के अनुच्छेद 14, 20 और 21 का हनन है।
जनहित याचिका के माध्यम से ही उच्च न्यायालय ने राजधानी में कोविड-19 की टेस्टिंग और उसकी स्थिति पर निगाह रखी और इस बारे में नियमित रूप से आदेश पारित किये।
उच्च न्यायालय ने कोविड महामारी के दौरान टेस्टिंग की न्यूनतम जरूरतों के प्रति पूरी तरह उदासीनता बरतने पर दिल्ली सरकार को आड़े हाथ लेने में भी संकोच नहीं किया।
न्यायालय ने कोविड-19 के बाद की स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों के बारे में मानक तैयार करने के लिये दिल्ली सरकार को निर्देश दिये।
इसी तरह, न्यायालय ने दिल्ली वासियों को डाक्टरों के पर्चे के बगैर ही अपने खर्च पर कोविड-19 के लिये आरटी-पीसीआर की जांच कराने की अनुमति प्रदान की।
इस साल दिल्ली विश्वविद्यालय की अपने अंतिम वर्ष के छात्रों के लिये ऑनलाइन खुली किताब परीक्षा के संबंध में भी महत्वपूर्ण जनहित याचिका दायर हुयी। यह जनहित याचिका शुरू में दिब्यांग छात्रों के लिये सुविधाओं के बारे में थी लेकिन कई बार परीक्षायें स्थगित होने के मद्देनजर न्यायालय की तहकीकात शीघ्र ही ऑन लाइन परीक्षायें आयोजित करने की विश्वविद्यालय की क्षमता तक पहुंच गयी।
न्यायालय ने विश्वविद्यालय से कहा, ‘‘छात्रों के लिये भी थोड़ी सहानुभूति रखी जाये।’
न्यायालय ने इस टिप्पणी के साथ ही विश्वविद्यालय को एक हलफनाम दायर कर यह बताने का निर्दश दिया कि अंतिम वर्ष की परीक्षायें कब और कैसे होंगी।
न्यायालय ने ऑन लाइन परीक्षायें आयोजित करने की विश्वविद्यालय की तैयारियों, परीक्षा के नतीजे घोषित करने की समय सीमा और विदेशी विश्वविद्यालयों को कंफर्ट पत्र जारी करने के मामले में भी पैनी निगाह रखी। इसी तरह, खुली किताब परीक्षा के दूसरे चरण के लिये यात्रा कर रहे दिव्यांग छात्रों के लिये ट्रेन में सीट सुनिश्चित करने के बारे में रेलवे को निर्देश दिये।
उच्च न्यायालय ने कोविड-19 महामारी से उत्पन्न अप्रत्याशित स्थिति से निबटने के लिये कई महत्वपूर्ण आदेश और फैसले भी सुनाये।
न्यायालय ने कहा कि वित्तीय परेशानियों को कम करने के इरादे से भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा जारी सर्कुलर महामारी से पहले बकाया राशि का भुगतान करने में विफल रहने वालों पर लागू नहीं होगा।
न्यायालय ने कहा कि प्रत्येक गडबड़ी या काम नहीं होने के लिये कोविड-19 महामारी से उत्पन्न स्थिति को जिम्मेदार ठहराना न्यायोचित नहीं है। उच्च न्यायालय ने कोविड-19 लाकडाउन की वजह से उत्पन्न अप्रत्याशित स्थिति के आधार पर किराये की अदायगी स्थगित करने का अनुरोध भी ठुकरा दिया।
न्यायालय ने दीवानी और आपराधिक मामलों में दिये गये सभी अंतरिम आदेशों की अवधि समय समय पर बढ़ाई। न्यायालय ने यह भी व्यवस्था दी कि जिन मामलों में कोविड-19 लॉकडाउन के दौरान मध्यस्था अवार्ड पारित करने की समय अवधि बीत गयी है, उनमे मध्यस्थम और सुलह कानून की धारा 29ए के तहत अलग से याचिका दायर करने की जरूरत नहीं है।
इसी तरह एक अन्य महत्वपूर्ण घटनाक्रम में उच्च न्यायालय ने जिला अदालतों में बुनियादी सुविधाओं और इंटरनेट सेवाओं में सुधार का मामला भी अपने हाथ में लिया।
निचली न्यायपालिका के प्रति उदासीन रवैया अपनाने और उसे एक जगह से दूसरी जगह जाने के लिये बाध्य करने के लिये दिल्ली सरकार को न्यायालय ने आडे हाथ लिया। इसके बाद आप सरकार ने निचली न्यायपालिका के लिये रूटर, एनएएस उपकरण, वेबएक्स लिंक आदि प्राप्त करने सहित कई परियोजनाओं के लिये 18 करोड़ रूपए मंजूर किये।
उच्च न्यायालय ने मद्रास उच्च न्यायालय से आये न्यायमूर्ति सुब्रमणियम प्रसाद का स्वागत किया और न्यायमूर्ति चंदर शेखर, न्यायमूर्ति जीएस सिस्तानी, न्यायमूर्ति आईएस मेहता, न्यायमूर्ति एके चावला और न्यायमूर्ति बृजेश सेठी को सेवानिवृत्त होने पर विदाई दी। इसी दौरान न्यायमूर्ति संगीता ढींगरा सहगल ने दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायाधीश पद से इस्तीफा भी दिया।
स्थानांतरण की सामान्य प्रक्रिया भी विवाद का विषय बन जाने की घटना न्यायमूर्ति मुरलीधर का पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय तबादला होने के मामले में सामने आयी क्योंकि दिल्ली दंगों के मामले में प्राधिकारियों को आड़े हाथ लिये जाने के कई दिन बाद इसकी स्थानांतरण की अधिसूचना जारी हुयी थी।
कोविड-19 महामारी के आघात से धीरे धीरे उबर रही राजधानी में उच्च न्यायालय ने एक सितंबर से चरणबद्ध तरीके से मुकदमों की प्रत्यक्ष रूप से सुनवाई की प्रक्रिया शुरू की। कोविड-19 लॉकडाउन के कारण न्यायालय के कार्यदिवसों को हुयी क्षति की भरपाई करते हुये उच्च न्यायालय ने अपनी ग्रीष्मकालीन छुट्टियां रद्द कर दी थीं।
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Hands off approach to PILs, COVID-19, and more: The Delhi High Court in 2020