आंधप्रदेश HC ने वाईएस जगनमोहन रेड्डी को लगाई फटकार, कहा ‘‘ सत्ता में बैठे लोग HC और SC पर हमला कर रहे हैं’’

‘‘सबसे पहले विधान परिषद पर हमला हुआ, इसके बाद राज्य निर्वाचन आयोग और अब आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय, यही नहीं, सत्तासीन लोग उच्चतम न्यायालय पर भी हमला कर रहे हैं।’’
आंधप्रदेश HC ने वाईएस जगनमोहन रेड्डी को लगाई फटकार, कहा ‘‘ सत्ता में बैठे लोग HC और SC पर हमला कर रहे हैं’’
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आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने राज्य में उच्च न्यायालय को कमजोर करने के वाईएस जगनमोहन रेड्डी सरकार के प्रयासों की तीखी आलोचना करते हुये अपने अप्रत्याशित आदेश में दो मुख्य न्यायाधीशों के स्थानांतरण की उच्चतम न्यायालय कॉलेजियम की सिफारिश पर कड़े शब्दों में असहमति व्यक्त की है।

उच्च न्यायालय ने यह तीखी टिप्पणियां राज्य सरकार की ओर से एक मामले की सुनवाई से एक न्यायाधीश विशेष को हटने के अनुरोध के लिये दायर आवेदन पर कीं और उसने इस मामल में आपराधिक कार्यवाही शुरू करने के लिये शिकायत दर्ज करने का आदेश दिया।

इस आदेश में न्यायालय ने तेलंगाना उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश आरएस चौहान और आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश जेके माहेश्वरी के स्थानांतरण करने के तरीके को लेकर उच्चतम न्यायालय की कॉलेजियम की सिफारिश पर भी आपत्ति वयक्त की।

न्यायालय ने इस तथ्य का जिक्र किया कि स्थानांतरण की सिफारिश मुख्यमंत्री वाईएस जगनमोहन रेड्डी द्वारा प्रधान न्यायाधीश एसए बोबडे को पत्र लिखकर आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के कामकाज की आलोचना किये जाने के तुरंत बाद की गयी। न्यायालय ने कहा कि इसका मतलब यही हुआ कि मुख्यमंत्री जो चाहते थे वह हो गया क्योंकि उच्च न्यायालय ने सांसदों/विधायकों के खिलाफ लंबित आपराधिक मामलों की सुनवाई को गति प्रदान की थी और इस तरह के कई मुकदमे वाईएस जगनमोहन रेड्डी के खिलाफ लंबित हैं।

न्यायमूर्ति राकेश कुमार ने राज्य की भूमि की नीलामी को चुनौती देने वाली याचिका की सुनवाई से उनके हटने के लिये दायर आवेदन अस्वीकार करते हुये स्वंय यह फैसला लिखा।

अतिरिक्त महाधिवक्ता सुधाकर रेड्डी द्वारा इस मामले की सुनवाई से न्यायमूर्ति कुमार के हटने के लिये दायर आवेदन पर कड़ी आपत्ति करते हुये न्यायाधीश ने दूसरी संवैधानिक संस्थाओं के कामकाज में सरकार के हस्तक्षेप की आलोचना करने में कोई संकोच नहीं किया।

न्यायालय ने इस फैसले में कहा, ‘‘सबसे पहले विधान परिषद पर हमला हुआ, इसके बाद राज्य निर्वाचन आयोग और अब आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय, यही नहीं, सत्तासीन लोग उच्चतम न्यायालय पर भी हमला कर रहे हैं।’’

मुख्यमंत्री के खिलाफ लंबित आपराधिक मामलों के निबटारे में विलंब की आलोचना करते हुये भी न्यायालय ने इस पर विस्तार से टिप्पणी की।

न्यायालय ने कहा,‘‘आश्चर्य है, यद्यपि 2011 से ही मामले लंबित हैं लेकिन आज तक किसी भी मामले में आरोप तक निर्धारित हुये हैं। क्या यह समूची व्यवस्था का मखौल नहीं है?’’

न्यायमूर्ति कुमार से सहमति व्यक्त करते हुये न्यायमूर्ति डी रमेश कुमार ने अपनी संक्षिप्त राय में टिप्पणी की, ‘‘मौजूदा हालात ने एक विचित्र परिस्थिति पैदा कर दी है जिससे बचा जा सकता था अगर सरकार को सही कानूनी सलाह दी गयी होती।’’

यह विवाद क्या है?

सरकार ने अतिरिक्त महाधिवक्ता (एएजी) सुधाकर रेड्डी के माध्यम से इस मामले में पहले की तारीख पर सुनवाई के दौरान आरोप लगाया कि न्यायमूर्ति राकेश कुमार ने टिप्पणी की थी,

‘‘सरकार शासन की संपत्तियों की नीलामी कैसे कर सकती है, क्या सरकार दिवालिया हो गयी है जो सरकारी संपत्तियां कर रही है। हम घोषणा करेंगे राज्य में संवैधानिक मशीनरी चरमरा गयी है और इसका प्रशासन केन्द्र सरकार को सौप देंगे।’’

एएजी ने यह भी कहा कि समाचार पत्रों में ये टिप्पणियां जस की तस प्रकाशित हुयी हैं।

हालांकि, न्यायाधीश ने इस तरह की कोई टिप्पणी करने से ही इंकार किया। वहां उपस्थित दूसरे अधिवक्ता ने भी कहा कि न्यायालय ने ऐसी कोई टिप्पणी नहीं की थी और तर्क दिया कि सुनवाई से हटने (न्यायाधीश) के बारे में एएजी का आवेदन अपमानजनक है जिसमे न्यायपालिका को बदनाम करने के लिये झूठ वक्तव्य हैं।

न्यायालय इस बात से सहमत थी कि ये आरोप पहली नजर में अवमानना वाले हैं। न्यायालय ने कहा कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस तरह की याचिका किसी निजी पक्षकार ने नहीं बल्कि राज्य सरकार की ओर से दाखिल की गयी है।

न्यायमूर्ति राकेश कुमार ने संबंधित घटनाओं को याद करते हुये निम्नलिखित तरीके से उन्हें दोहराया:

‘‘मामले की मेरिट पर टिप्पणी किये बगैर ही, पहली नजर में न्यायालय के मन में कुछ संदेह पैदा हो रहे हैं कि क्या एक निर्वाचित सरकार, जो सिर्फ पांच साल के लिये चुनी गयी है, को राज्य की भूमि का मालिकाना हक हस्तांतरित करने का अधिकार है। अगर यह राज्य की संपत्ति है तो निश्चित ही राज्य के प्रत्येक नागरिक का ऐसी संपत्ति में कुछ हित है और सिर्फ पांच साल के लिये ही इसका ट्रस्टी होने के कारण सरकार इस संपत्ति का मालिकाना हक न तो बेच सकती है और न ही इसे हस्तांतरित कर सकती है। अगर इस पर आपत्ति नहीं की गयी तो इसकी संभावना है कि ऐसा समय आ सकता है जब राज्य को बगैर भूमि वाले राज्य के रूप में जाना जायेगा। यह सभी संदेह न्यायालय के मन में हैं और इस वजह से न्यायालय (न्यायमूर्ति राकेश कुमार) राज्य की वित्तीय स्थिति के बारे में जानना चाहते हैं। यह वह मामला नहीं है जिसमे एक पीठ ने जिसका मैं (न्यायमूर्ति राकेश कुमार) भी एक सदस्य था, ने अंतरिम आदेश दिया था। कोआर्डिनेट पीठ द्वारा अंतरिम आदेश पारित किये जाने के बाद, मेरी (न्यायमूर्ति राकेश कुमार) की अध्यक्षता वाली पीठ ने कई तारीखों पर मामले की सुनवाई की। जवाबी हलफनामे में दाखिल किये गये थे। लेकिन अंतिम सुनवाई अभी होनी थी। इसी बीच, उक्त आवेदन दाखिल किया गया था।’’

न्यायाधीश अपने बचाव के लिये मीडिया में नहीं जा सकते

न्यायमूर्ति कुमार ने यहां तक कहा कि जब किसी ठोस आधार के बगैर ही किसी न्यायाधीश की ईमानदारी, निष्ठा, नेकनीयती और निष्पक्षता पर सवाल उठाये जाते हैं तो न्यायाधीश को अपने बचाव में सारे निर्विवाद तथ्यों को हवाला देने का पूरा अधिकार है। उन्होंने कहा कि कानून के शासन को बनाये रखने के लिये यह महत्वपूर्ण है।

न्यायालय ने कहा, ‘‘ न्यायाधीश के पास अपनी निष्पक्षता और उपरोक्त दूसरे तत्वों को दर्शाने के लिये कोई मंच नहीं है। न्यायाधीश की शपथ से बंधे होने के कारण हम अपने बचाव के लिये मीडिया में नहीं जा सकते। लेकिन, निश्चित ही न्याय व्यवस्था के प्रति नागरिकों के मन में पैदा होने वाले किसी भी प्रकार के संदेह को दूर करने के इरादे से न्यायाधीश का यह कर्तव्य है कि कानून के शासन को बनाये रखा जाये और बगैर किसी ठोस आधार के इस तरह के आरोप लगाने वाले व्यक्तियों के खिलाफ कार्रवाई शुरू की जाये।’’

न्यायमूर्ति कुमार ने यह भी कहा कि अगर किसी व्यक्ति को किसी न्यायाधीश से शिकायत है तो इसका समाधान वृहद पीठ या उच्चतर न्यायालय के पास है। उन्होंने कहा कि बगैर किसी ठोस आधार के किसी न्यायाधीश को बदनाम करना अवमानना वाला है।’’

उच्च न्यायालय के लिये आंध्रप्रदेश में नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करना बहुत मुश्किल हो गया है

न्यायमूर्ति कुमार ने यह टिप्पणी भी की कि एक परेशान करने वाली एक प्रवृत्ति देखी जा रही है जिसमे प्रभावशाली या ताकतवर लोग यह समझते हैं कि उन्हें अपनी सुविधानुसार कुछ भी करने का अधिकार है।’’

न्यायाधीश ने ‘भारी मन से ’ यह भी लिखा कि उच्च न्यायालय के लिये आंध्र प्रदेश के नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करना ‘बहुत ही मुश्किल’ हो गया है।

इस संबंध में आदेश में कहा गया है कि न्यायाधीश ने संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन और वयैक्तिक स्वतंत्रता) और अनुच्छेद 22 (एहतियाती हिरासत से संरक्षण) अधिकारों का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन होता है।

न्यायमूर्ति कुमार ने कहा, ‘‘एक न्यायाधीश के रूप में मैंने इस तरह की शिकायतों के साथ कई याचिकायें देखी हैं कि कानून की प्रक्रिया का पालन किये बगैर ही सरकार ने पुलिस के जरिये लोगों को उठा लिया। इसका निष्कर्ष आंध्र प्रदेश में पुलिस द्वारा ज्यादतियां किये जाने के रूप में निकाला जा सकता है।’’

उन्होंने आगे लिखा कि उनके सामने ऐसे कई मामले में आये जिनमें कानूनी प्रक्रिया का पालन किये बगैर ही जमीन बेदखल किये जाने की आशंकायें व्यक्त की गयी थीं।

उच्च न्यायालय को कमजोर किया जा रहा है

न्यायमूर्ति कुमार ने राज्य विधान परिषद भंग करने और राज्य निर्वाचन आयोग के कामकाज को लेकर सरकार के रवैये की भी आलोचना की।

फैसले में आगे कहा गया,

‘ इस बात को कोई भूल नहीं सकता कि यह अकेला राज्य है जहां एक ही राज्य के लिेये तीन राजधानियां बसाने के विधान सभा के फैसले से विधान परिषद के सहमत नहीं होने पर राज्य विधान परिषद को ही भंग कर देने की सिफारिश कर दी गयी। यहां तक कि राजय निर्वाचन आयुक्त का कार्यालय, जो एक संवैधानिक संस्था है, को भी नहीं बख्शा गया क्योंकि राज्य निर्वाचन आयुक्त राज्य सरकार की मर्जी के मुताबिक काम नहीं कर रहा था।’’

न्यायालय ने कहा कि इस तरह से इन दो संवैधानिक संस्थाओं को नजरअंदाज कर और कमजोर करने के बाद अब उच्च न्यायालय को अगला निशाना बनाया जा रहा है।

प्रधान न्यायाधीश बोबडे को लिखे पत्र ने शायद राज्य की नौकरशाही का साहस बढ़ा दिया

न्यायमूर्ति कुमार विस्मित थे कि क्या सुनवाई से हटने के लिये मौजूदा आवेदन इसलिए दायर किया गया क्योंकि मुख्यमंत्री रेड्डी को उच्च न्यायालय और इसके मुख्य न्यायाधीश और उच्चतम न्यायालय के एक पीठासीन वरिष्ठ न्यायाधीश के खिलाफ आरोप लगाते हुये प्रधान न्यायाधीश को पत्र लिखकर मिली ‘सफलता’ है।

न्यायालय ने कहा, ‘‘कुछ क्षण के लिये तो मैं सरकार के इस तरह के आचरण से भौचक्का रह गया लेकिन इसके तुरंत बाद ही मैंने, महसूस किया कि आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री द्वारा प्रधान न्यायाधीश को लिखे पत्र और उसे सार्वजनिक कर, जिसमे उच्चतम न्यायालय के एक वरिष्ठ न्यायाधीश, उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और अनेक पीठासीन न्यायाधीशों पर उनके नाम के साथ आरोप लगाये गये थे, ने राज्य की नौकरशाही को ज्यादा मुखर बना दिया है।’’

उन्होंने तो यहां तक टिप्पणी की कि अब शायद जनता को ऐसा महसूस होगा कि मुख्य मंत्री द्वारा प्रधान न्यायाधीश बोबडे को लिखे गये पत्र ने उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को स्थानांतरित करने का प्रस्ताव देने के लिये कॉलेजियम को मजबूर किया ।

उच्च न्यायालय ने कहा कि मुख्य न्यायाधीश के स्थानांतरण से मुख्यमंत्री के खिलाफ लंबित आपराधिक मामलों में विलंब होगा और ऐसा ही आंध्र प्रदेश की तीन राजधानियां बनाये के सरकार के निर्णय के खिलाफ दायर मामलों के बारे में भी कहा जा सकता है।

उच्च न्यायालय ने आदेश में आगे कहा, ‘‘ प्रधान न्यायाधीश को अशोभनीय तरीके से पत्र लिखने से मुख्यमंत्री को अंतिम राहत मिलेगी या नहीं लेकिन यह तथ्य तो रहेगा कि वह फिलहाल अनावश्यक लाभ प्राप्त करने में कामयाब हो गये हैं। लोग यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि शायद मुख्यमंत्री के तथाकथित पत्र के बाद ही दो मुख्य न्यायाधीशों- तेलंगाना उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश- का तबादला किया गया। इन तबादलों से, स्वाभाविक ही है, मुख्यमंत्री वाई एस जगन मोहन रेड्डी और अन्य के खिलाफ हैदराबाद में सीबीआई की विशेष अदालत में लंबित मुकदमों में विलंब होगा और रिट याचिका (सिविल) 699/2016 में उच्चतम न्यायालय की निगरानी का काम भी प्रभावित हो सकता है। इसी तरह, आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के तबादले से आंध्र प्रदेश सरकार को अनुचित लाभ मिलना तय है।’’

न्यायालय ने यह कहने में भी संकोच नहीं किया कि उच्चतम न्यायालय की कॉलेजियम को अधिक पारदर्शी होना चाहिए और इस तथ्य पर भी विचार करना चाहिए कि उच्च न्यायालय के न्यायाधीश भी संवैधानिक पदों पर हैं।

न्यायमूर्ति कुमार ने कहा, ‘‘ मैं, आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय या तेलंगाना उचच न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के तबादले पर कोई सवाल नहीं उठा रहा हूं लेकिन इसके साथ ही यह टिप्पणी करने को मजबूर हूं कि न्याय के प्रशासन में बेहतरी के लिये उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों या उसके मुख्य न्यायाधीशों के स्थानांतरण में पारदर्शिता नजर आनी चाहिए। आखिरकार, उच्चतम न्यायालय की कॉलेजियम के सदस्यों की तरह ही वे भी संवैधानिक पदों पर आसीन है। ’’

गूगल पर ‘‘कैदी 6093’ पर परेशान करने वाली जानकारी

न्यायमूर्ति राकेश कुमार ने राज्य के मुख्यमंत्री वाई एस जगन मोहन रेड्डी के खिलाफ लंबित आपराधिक मामलों को लेकर पुलिस के तौर तरीके पर भी साल उठाये।

इस संबंध में उन्होंने इस साल उच्चतम न्यायालय द्वारा सांसदों-विधायकों के खिलाफ आपराधिक मामलों की निगरानी और इनकी सुनवाई तेजी से करने के बारे में उच्च न्यायालयों को दिये गये निेर्देश और इसके बाद मुख्यमंत्री रेड्डी के खिलाफ 7-8 आपराधिक मामले बंद किये जाने का जिक्र किया।

न्यायालय ने कहा, ‘‘ आंध्र प्रदेश पुलिस की उक्त कार्रवाई यह दर्शाती है कि पुलिस के मुखिया-आंध्र प्रदेश के पुलिस महानिदेशक- किस तरह राज्य में कानून का शासन बनाये रखने की बजाये सरकार के इशारे पर काम करते हैं।

न्यायालय ने रेड्डी के खिलाफ सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय द्वारा दर्ज मामले सहित कुछ मामलों के विवरण का इसमे उल्लेख किया है।

न्यायमूर्ति कुमार ने आदेश में बयां किया कि गूगल पर सीएम रेड्डी के बारे में खोजने पर उन्हें बहुत ही परेशान करने वाली जानकारियां मिलीं जिसने मुख्यमंत्री को प्रधान न्यायाधीश बोबडे को पत्र लिखने के लिये प्रेरित किया।

आदेश में आगे कहा गया है, ‘‘आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री का छह अक्टूबर, 2020 का पत्र प्रकाशित होने तक मुझे उनके बारे में ज्यादा जानकारी नहीं थी। लेकिन, इसके तुरंत बाद, मैं उनके बारे में जानकारी प्राप्त करने के लिये उत्सुक हुआ। इसके बाद, मुझे बताया गया कि अगर मैं ‘गूगल’ साइट पर जाकर सिर्फ ‘कैदी नंबर 6093’ टाइप करूं तो मुझे काफी जानकारी मिल सकती है। तद्नुसार,मैंने वहीं किया और इसके बाद मुझे बहुत ही परेशान करने वाली जानकारियां मिली।’’

सेवानिवृत्ति के बाद की उम्मीदों पर पाबंदी लगाने से न्यायपालिका की स्वतंत्रता को बल मिलेगा

न्यायमूर्ति कुमार ने अपनी विस्तृत राय समाप्त करते हुये न्यायाधीशों और सेवानिवृत्ति के बाद के कार्यक्रमों पर भी टिप्पणी की। उन्होंने कहा कि न्यायाधीश अगर सेवानिवृत्ति के बाद कम से कम एक साल कोई नयी जिम्मेदारी नहीं लें तो इससे न्यायपालिका की स्वतंत्रता बनाये रखने में मदद मिलेगी।

इस आदेश में आगे कहा गया, ‘‘ मेरी राय है कि आज की मौजूदा परिस्थितियों में, जब न्यायिक व्यवस्था में निष्पक्षता, ईनामदारी, और निष्ठा जैसे सवाल उठाये जा रहे हैं, तो इसके लिये कुछ हद तक हम भी जिम्मेदार हैं। ऐसे कई उदाहरण हमने नोटिस किये हैं कि न्यायाधीश पद से सेवानिवृत्त होने के तुरंत बाद ही न्यायाधीशों को नयी जिम्मेदारी सौंपी गयी है। अगर हम सेवानिवृत्त होने के बाद कम से कम एक साल तक कोई नयी जिम्मेदारी नहीं लेने का संयम बरतें तो मुझे नहीं लगता कि कोई भी राजनीतिक दल, यहां तक कि सत्तारूढ़ दल भी, न्यायपालिका की स्वतंत्रता को कमजोर कर सकेगा और हम किसी से प्रभावी हुये बगैर ही कानून के शासन को बरकरार रखने की स्थिति में होंगे।’’

न्यायमूर्ति ये भी कहा कि हालांकि उनकी कई टिप्पणियां हो सकता है कि तकनीकियों के अनुरूप नहीं हों लेकिन कानून का शासन बनाये रखने के प्रयासों और ‘मौजदूा कार्यवाही में मेरे ही मुंह पर सरकार’ द्वारा मेरी निष्पक्षता पर सवाल उठाने के कारण इन तथ्यों को रिकार्ड पर लाने के लिये वह मजबूर है क्योंकि वह भी सेवानिवृत्ति की कगार पर हैं।

राज्य की इस तरह की किसी कार्रवाई से न्यायालय को डराया नहीं जा सकता

सुनवाई से हटने के अनुरोध को पूरी तरह निराधार और दुर्भावना पूर्ण करार देते हुये न्यायालय की इस टिप्पणी के साथ अस्वीकार कर दिया गया कि अगर ऐसी याचिकाओं पर विचार करना शुरू कर दिया गया तो किसी भी मामले में वह न्याय नहीं कर सकेगा।

आदेश में कहा गया, ‘‘ अगर इस तरह की याचिकाओं पर विचार किया गया, इसका मतलब पक्षकार को अपनी मर्जी की पीठ खोजने की अनुमति देना होगा। सरकार से इस तरह की कार्रवाई की अपेक्षा नही थी। लेकिन इस राज्य में जैसी की मैंने टिप्पणी कि उक्त परिस्थितियों में सब कुछ संभव है। हालांकि, सरकार की इस तरह की कार्रवाई से न्यायालय को डराया नहीं जा सकता है।’’

न्यायमूर्ति डी रमेश ने निर्देश दिया कि छह सप्ताह के भीतर स्पष्टीकरण दिया जाये कि इस मामले में अवमानना की कार्यवाही क्यों नहीं शुरू की जानी चाहिए। रजिस्ट्रार जनरल को निर्देश दिया गया कि कि आपराधिक कार्यवाही के लिये शिकायत दायर करें। यह मामला अब फरवरी, 2021 के लिये सूचीबद्ध किया गया है।

आदेश में स्पष्ट किया गया कि न्यायालय ने मामले की मेरिट पर कोई टिप्पणी नहीं की है।

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