वरिष्ठ अधिवक्ता गोपाल सुब्रमणियम ने सोमवार को यहां कहा कि यह सुनिश्चित करने के लिये स्वतंत्र न्यायपालिका महत्वपूर्ण है कि भारत के संविधान में किये गये वायदों को बरकरार रखा जाये। उन्होंने आगाह किया कि स्वतंत्र न्यायपालिका के बगैर संविधान खोखले वायदों का बयान बनकर रह जायेगा।
उन्होंने कहा कि प्रत्येक संस्थान के गौरव और चुनौती के अपने क्षण होते हैं। वर्तमान में चुनौती के क्षण हैं जब अदालतों का एक संवैधानिक कर्तव्य है कि वे संवैधानिक स्वतंत्रता के प्रति सचेत हों, विशेषकर जब सरकार अपने अधिकार के प्रति अधिक कठोर होने लगे। उन्होंने कहा,
‘‘अपने पद की शपथ के अनुरूप न्यायाधीशों को बगैर किसी भय, पक्षपात, राग या द्वेष के काम करना चाहिए क्योंकि न्यायपालिका की स्वतंत्रता के बगैर संविधान खोखले वायदों के दस्तावेज से कुछ ज्यादा ही है।’’
पूर्व सालिसीटर जनरल यूनिवर्सिटी आफ कैंब्रिज के जीसस कालेज और इंटेलेक्चुअल फोरम द्वारा ‘शिफ्टिंग मीनिंग्स आफ द रूल आफ लॉ एंड ज्यूडीशियल इंडिपेन्डेंस’’ विषय पर आयोजित वेबिनार को संबोधित कर रहे थे।
कैंब्रिज विश्वविद्यालय की श्रुति कपिला और सौम्या सक्सेना ने इस परिचर्चा का संचालन किया।
सुब्रमणियम ने कहा कि भारत के उच्चतम न्यायालय और इसकी लोकतांत्रिक साख इस बात पर निर्भर करती है कि सभी स्वतंत्र और समान हैं।
हालांकि, उन्होंने यह भी कहा कि पूरी स्वतंत्रता के साथ अराजकता और अव्यवस्था भ्री आती है। वह स्पष्ट करते हैं,
‘‘समाज में हमेशा ऐसे कुछ लोग रहेंगे जो अपनी स्वतंत्रता का चयन दूसरों का अहित करने के लिये करेंगे। इस समाधान एक व्यवस्थित आजादी में निहित है। अत: लोग समझौते के लिेय राजी होते हैं।’’
दूसरे शब्दों में लोग अपनी आजादी और समता की गारंटी सहित कतिपय आश्वासनों के बदले अपनी आजादी के छोटे हिस्से से समझौता करने का मार्ग चुनते हैं।
सुब्रमणियम ने इस तथ्य को रेखांकित किया कि, ‘‘भारत में यह समझौता 26 नवंबर, 1949 को पूरा हुआ जब देशवासियों ने संविधान अपनाया। ’’
उन्होंने इस बारे में प्रकाश डाला कि न्यायपालिका पर सबसे महत्वपूर्ण काम अर्थात , यह सुनिश्चित करना कि समझौते या संविधान का हनन नहीं हो, के लिये अंतत: भरोसा कैसे किया गया।
‘‘उच्चतम न्यायालय संविधान का अंतिम व्याख्याता बना और उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों को कार्यपालिका और विधायिका दोनों की कार्रवाईयो पर निगाह करने की सर्वोच्च जिम्मेदारी सौंपी गयी, इन दोनों निकायों की संविधान से प्रतिबद्धता थी। इस व्यापक जिम्मेदारी को ध्यान में रखते हुये ही अदालतों को संरक्षण प्रदान करना संवैधानिक व्यवस्था का ही हिस्सा है। किसी भी अदालत से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वह सरकार के दूसरे विभागों के हस्तक्षेप के साथ निगरानी करने का अपना काम करे।’’
उन्होंने कहा कि न्यायिक अधिकार कभी भी कार्यपालिका की मंशा को सुविधा पहुंचाने वाले नहीं हैं। इसके विपरीत, यह कार्यपालिका के अधिकारों के बारे में पूछताछ या छानबीन करने वाला होना चाहिए।
सुब्रमणियम ने कहा, ‘‘स्वतंत्रता से वंचित करने से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण न्याय तक पहुंच से वंचित करने के ऐतिहासिक आरोप होंगे जिनका न तो सरकार और न ही अदालतों को सामना करना चाहिए।
सुब्रमणियम ने कहा कि न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में संविधान में शुरू से ही खामियां थी और वे आजादी के शुरूआती दशकों में ही स्पष्ट हो गयीं थीं
सुब्रमणियम ने टिप्पणी की कि यह व्यवस्था ऐसी थी जिसमे अधिकारों के दुरूपयोग से बचने के लिये नियुक्ति प्रक्रिया में किसी प्रकार की निगरानी का प्रावधान नहीं था। उन्होंने कहा,
‘‘हमें उम्मीद थी कि कार्यपालिका अपने हितों को दरकिनार करके हमेशा ही सदाशयता से काम करेगी। यह थोड़ा अचरज भरा लगेगा कि उच्चतम न्यायालय के शुरूआती वर्षो में कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच कुछ तनाव नजर आया। इसमें संविधान की व्यवस्था की कोई भूमिका नहीं थी। इस प्रक्रिया ने काम किया क्योंकि राष्ट्रपति ने कानून की भाषा के स्थान पर परंपरा का अनुसरण करना चुना। हालांकि, संविधान के अंतर्गत उन्हें सिर्फ देश के प्रधान न्यायाधीश से ही मशविरा करना था, व्यवहार में राष्ट्रपति, इसका तात्पर्य कार्यपालिका से है, और उन्होंने हमेशा प्रधान न्यायाधीश की सिफारिशों से सहमति व्यक्त की।’’
सुब्रमणियम ने कहा कि इसका नतीजा यह है कि उच्चतम न्यायालय के प्रथम पांच प्रधान न्यायाधीशों ने अपनी विलक्षण प्रतिभा, ज्ञान और स्वभाव और भारत के श्रेष्ठतम अटार्नी जनरल की मदद से पूरी विनम्रता के साथ न्यायपालिका की स्वतंत्रता और उसके स्वभाव की लय तय कर दी। उस समय राजनीतिक नेताओं ने न्यायालय को अपना सहयोगी या विरोधी नहीं समझा। संविधान सर्वोपरि रहा।’’
संभवत: इसकी एक वजह यह भी रही होगी कि सभी की इच्छा थी कि संविधान काम करे। पाकिस्तान, जिसे भारत की तरह ही 1947 में आजादी मिली थी, की कहानी हम सभी को आगाह कर रही थी लेकिन उसके पास 1956 तक संविधान नहीं था। पहला संविधान दो साल बाद ही जबरन रद्द कर दिया गया था।
उन्होंने कहा कि न्यायाधीशों की नियुक्त के मामले में प्रधान न्यायाधीश की सिफारिशों का सम्मान करने की परपंरा दो दशक तक चली।
सुब्रमणियमने कहा कि 1970 के दशक में संविधान की खामियां सामने आने लगीं। उच्चतम न्यायालय और केन्द्र के बीच कई मामलों में टकराव हुआ और इससे नाराज कार्यपालिका यथास्थिति को उलट पलट दिया। प्रधान मंत्री इन्दिरा गांधी के पहले दो कार्यकाल के दौरान पारित चार फैसलों ने पतन के संकेत दिये।
ये चार मामले थे- आईसी गोलकनाथ बनाम पंजाब, आरसी कूपर बनाम भारत संघ , द प्रीवी पर्सेज मामला और केशवानंद भारती बनाम केरल।
केशवानांद भारत मामले में चौथी पराजय को सरकार ने सहजता से नहीं लिया। इसके बाद ही प्रधान न्यायाधीश पद के लिये प्रधान न्यायाधीश एसएम सीकरी द्वारा नामित न्यायाधीश के स्थान पर न्यायमूर्ति एएन रे को अगला प्रधान न्यायाधीश बनाया गया । इस प्रक्रिया में तीन वरिष्ठतम न्यायाधीशों- न्यायमूर्ति जयशंकर मणिलाल शेलट, न्यायमूर्ति एएन ग्रोवर और न्यायमूर्ति केएस हेगड़े की वरिष्ठता को नजरअंदाज किया गया।
सुब्रमणियम के अनुसार ‘‘ये तीनों ही प्रतिष्ठित न्यायाधीश थे लेकिन ये तीनों ही सरकार की पसंद के हिसाब से काफी स्वतंत्र विचार के थे। प्रधान न्यायाधीश रे की नियुक्ति के साथ संविधान के इतिहास में पहली बार एक महत्वपूर्ण परंपरा को तोड़ दिया गया था।’’
अटार्नी जनरल सीके दफ्तरी के शब्दों में कहें, ‘‘जिस लड़के ने सबसे अच्छा निबंध लिखा, उसे सर्वोत्तर पुरस्कार मिला।’’
सुब्रमणियम ने कहा, ‘‘रे की नियुक्ति ने राजनीति की गहराईयों को बेनकाब कर दिया। संविधान की कमजोरियां अब सामने नजर आ रही थीं।
सुब्रमणियम कहते हैं कि उस समय देश भी विचित्र दौर से गुजर रहा था, तभी 1975 में राज नारायण मामले में साहस उस समय उभर कर सामने आया जब इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति जगमोहनलाल सिन्हा ने चुनाव में कदाचार के मामले में इन्दिरा गांधी के खिलाफ व्यवस्था दी।
तमाम दबावों का प्रतिरोध करते हुये उन्होंने इन्दिरा गांधी को छह साल के लिये चुनाव लड़ने के अयोग्य करार दे दिया।
यह मामला जब सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तो न्यायालय में अवकाश चल रहा था। न्यायमूर्ति कृष्णा अय्यर अकेले सुनवाई कर रहे थे और उन्होंने इस पर पूर्ण रोक लगाने से इंकार कर दिया, हालांकि उन्होंने इन्दिरा गांधी को मतदान के बगैर ही संसद की कार्यवाही में शामिल होने की इजाजत दे दी थी।
न्यायमूर्ति अय्यर ने जिस शानदार तरीके से सुनवाई की वह न्यायिक चित्त, और पारदर्शिता का श्रेष्ठतम उदाहरण था। प्रधान न्यायाधीश के न्यायालय कक्ष की सभी खिड़कियां खोल दी गयी थीं, वकीलों की भीड़ खामोशी से कार्यवाही देख रही थी। अगले दिन, सुबह राष्ट्रपति फखरूद्दीन अली अहमद ने सरकार की सलाह पर भारत में राष्ट्रीय आपात स्थिति घोषित कर दी।
सुब्रमणियम ने कहा कि मानव अधिकारों का हनन होता रहा और उच्चतम न्यायालय खामोशी से देखता रहा। वह कहते हैं, ‘‘उन स्वर्णिम क्षणो में नौ उच्च न्यायालयों में वयैक्तिक आजादी को बरकरार रखा और आपातकाल के दौरान नजरबंद व्यक्ति को अदालत में याचिका दायर करने का अधिकार होने की व्यवस्था देने वाले इन न्यायाधीशों का दंड स्वरूप तबादला किया गया।
इसके बाद सुपीम कोर्ट के समक्ष आया एडीएम जबलपुर मामला जो सबसे अंधकार मय क्षण था। शीर्ष अदालत ने सरकार की इस दलील को स्वीकार कर लिया था कि आपातकाल के दौरान मौलिके अधिकारों को निलंबित किया जा सकता है।
न्यायमूर्ति एचआर खन्ना इससे अलग खड़े थे और उन्होंने व्यक्तिगत स्वतंत्रता के पक्ष में फैसला सुनाया। और अपनी इस आजादी की उन्हें बड़ी कीमत चुकानी पड़ीं।
वह याद करते हैं कि न्यायमूर्ति खन्ना ने न्यायमूर्ति बेग को उनके स्थान पर प्रधान न्यायाधीश नियुक्त किये जाने पर अपने पद से इस्तीफा दे दिया।
नब्बे के दशक में न्यायाधीशों की नियुक्ति के प्रस्तावों पर बैठजाना कार्यपालिका का नया हथियार था।
उन्होंने कहा, ‘‘कार्यपालिका ने अब किसी भी नाम को वीटो करने का एक नया हथियार खोज लिया था। वह आराम से नियुक्ति के प्रस्ताव पर बैठ जाती थी।
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