उच्चतम न्यायालय ने 2017 में हिमांगी इंटरप्राइसेज प्रकरण में सुनाये गये अपने ही निर्णय को पलटते हुये सोमवार को कहा कि संपत्ति हस्तांतरण कानून से शासित मकान मालिक-किरायेदार विवाद मध्यस्था योग्य हैं और वे किसी संपत्ति से संबंधित कार्रवाई नहीं है बल्कि यह अधीनस्थ अधिकारों से संबंधित है जो संपत्ति की कार्यवाही से निकला अधिकार है।
न्यायमूर्ति एनवी रमना की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय पीठ ने कहा कि सामान्यतया संपत्ति हस्तांतरण कानून के तहत इस तरह की कार्रवाई तीसरे पक्ष के अधिकार को प्रभावित नहीं करेगी और ऐसे विवाद अपरिहार्य शासकीय कार्य से संबंधित नहीं हैं।
न्यायालय ने कहा कि मकान मालिक-किरायेदार के विवाद मे पारित अवार्ड दीवानी अदालत की डिक्री की तरह लागू किया जा सकता है और संपत्ति हस्तांतरण कानून के प्रावधान स्पष्ट रूप से या अनिवार्य परिणति के रूप में मध्यस्था प्रतिबंधित नहीं करते हैं।
न्यायालय ने कहा, ‘‘उपरोक्त के मद्देनजर , हम हिमांगनी इंटरप्राइसेज में प्रतिपादित अनुपात खारिज करते हैं और यह व्यवस्था देते हैं कि मकान मालिक- किरायेदार विवाद मध्यस्था योग्य हैं क्योंकि संपत्ति हस्तांतरण कानून मध्यस्थता वर्जित या प्रतिबंधित नहीं करता है।’’
हालांकि, पीठ, जिसमें न्यायमूर्ति संजीव खन्ना और न्यायमूर्ति कृष्ण मुरारी भी शामिल थे, ने स्पष्ट किया कि किराया नियंत्रण कानून से शासित और इसके दायरे में आने वाले मकान मालिक – किरायेदार विवाद उस समय मध्यस्था योग्य नहीं होंगे जब किसी र्निदिष्ट अदालत या फोरम को विशेष अधिकार और जिम्मेदारियों के बारे में विचार करने और निर्णय लेने का पूरा अधिकार प्रदान किया गया हो।
न्यायालय ने स्पष्ट किया, ‘‘इस तरह के अधिकारों और दायित्वों को केवल र्निदिष्ट अदालत/फोरम द्वारा निर्णय से लागू कराया जा सकता है और मध्यस्थता के माध्यम से नहीं। ’’
यह मामला न्यायमूर्ति रोहिन्टन नरिमन और न्यायमूर्ति विनीत सरन जब यह महसूस किया कि हिमांगनी इंटरप्राइसेज में सुनाये गये फैसले पर शीर्ष अदालत की तीन न्यायाधीशों की पीठ के विचार की आवश्यकता है तो उसने मार्च, 2019 में तीन न्यायाधीशों की पीठ के भेजा था।
गैर मध्यस्था वाले पहलू के अलावा एक अन्य मुद्दा तीन न्यायाधीशों की पीठ के पास विचार के लिये भेजा था कि मध्यस्था के सवाल पर निर्णय करने वाला सक्षम प्राधिकारी कौन होगा- भेजे जाने के चरण में अदालत या मध्यस्था कार्यवाही में मध्यस्था अधिकरण।
न्यायालय ने इस संबंध में अनेक व्यवस्थाओं और प्रावधानों का विश्लेषण करने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि बेहतर होगा कि मध्यस्था अधिकरण को मध्यस्था लागू नहीं होने से संबंधित सारे सवालों पर विचार करके निर्णय लेने वाला प्रथम प्राधिकार हो। मध्यस्था के अवार्ड के बाद न्यायालय को इसका ‘दुबारा अवलोकन’ करने का अधिकार दिया गया है।
न्यायालय ने फैसले में कहा, ‘‘ 2016 के कानून 3 और 2019 के कानून 33 के उद्देश्य और अलग करने के सिद्धांत और योग्यता के सिद्धांत से यह स्पष्ट है कि सामान्य नियम एवं सिद्धांत यह है कि मध्यस्था अधिकरण गैर मध्यस्था से संबंधित सारे सवालों का निर्धारण और निर्णय करने के लिये प्रथम प्राधिकार उचित होगा। मध्यस्था कानून की धारा 34 (2) (ए) और धारा 34 (2)(बी) के उप प्रावधानों के अनुरूप अवार्ड दिये जाने के बाद इससे संबंधित सारे पहलुओं पर दुबारा विचार के लिये अदालत को अधिकार प्रदान किया गया है।’’
शीर्ष अदालत ने कहा कि धारा 8 या 11 के चरण में, जब यह निश्चित हो कि मध्यस्था करार नहीं है, अवैध है या विवाद मध्यस्थता योग्य नहीं है, न्यायालय बहुत कम हस्तक्षेप कर सकती है। हालांकि, मध्यस्था योग्य नहीं होने का तथ्य कुछ हद तक न्यायिक समीक्षा की सीमा का निर्धारण करेगा।
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