दिल्ली उच्च न्यायालय ने हाल ही में एक फैसले में कहा कि सशस्त्र बल के सदस्यों को अनावश्यक रूप से परेशान नहीं किया जाना चाहिए और उन्हें न्याय के लिये विभिन्न न्यायिक मंचों के बीच दौड़ लगाने के लिये बाध्य नहीं किया जाना चाहिए।
न्यायमूर्ति राजीव सहाय एंडलॉ और न्यायमूर्ति आशा मेनन की पीठ ने हाल ही में इस संबंध में एक आदेश पारित किया। इस आदेश मे कहा गया,
‘‘देश के लिये अपना जीवन कुर्बान करने की शपथ लेने वाले बल के सदस्य एक अलग वर्ग में शामिल हैं और वे विशेष व्यवहार के पात्र हैं। उन्हें अनावश्यक परेशान करने और न्याय के लिये एक फोरम से दूसरी फोरम के बीच दौड़ने के लिये बाध्य नहीं किया जाना चाहिए।’’
पीठ ने कहा कि दृष्टांतानुसरण सिद्धांत के अंतर्गत सशस्त्र बल अधिकरण के लिये उच्च न्यायालय के फैसले बाध्यकारी है।
न्यायालय अधिकारी रैंक के नीचे के व्यक्तियों को नहीं बल्कि रक्षा सेवाओं के सिर्फ कमीशन अधिकारियों को ही समानुपातिक पेंशन का लाभ देने संबंधी रक्षा मंत्रालय के आदेश को चुनौती देने वाली याचिकाओं की सुनवाई कर रहा था।
न्यायालय में याचिका दायर करने वालों में गैर कमीशन अधिकारी/अधिकारी रैंक के नीचे के वे लोग थे जो एयरमेन/कार्पोरल के रूप में भारतीय वायु सेना में भर्ती हुये थे।
इस मसले पर विचार करते हुये गोविन्द कुमार श्रीवास्तव बनाम भारत संघ मामले में एक खंडपीठ ने अपनी व्यवस्था में कहा था कि सशस्त्र बल अधिकरण रक्षा मंत्रालय के आदेश को चुनौती देने वाली याचिका पर विचार नहीं कर सकता है और उसने उस प्रकरण में याचिकाकर्ताओं को समानुपातिक पेंशन की अनुमति प्रदान की थी।
इस आदेश के मद्देनजर पिछले पांच महीने में उच्च न्यायालय की दूसरी पीठ ने भी ऐसे ही मामले सुनवाई के लिये पेश होने पर पहले ही दिन बड़ी संख्या में ऐसी याचिकाओं को अनुमति प्रदान की। इन पीठ ने यह निर्देश दिया था कि अगर सत्यापन में याचिकाकर्ता गोविन्द कुमार श्रीवास्तव की स्थिति वाले अधिकारी मिलते हैं तो उन्हें समानुपातिक पेंशन दी जायेगी।
हालांकि, पेश मामले में न्यायालय ने पाया कि सशस्त्र बल अधिकरण एनसीओ को समानुपातिक पेंशन की राहत देने से इंकार कर रहा है।
यद्यपि भारतीय वायु सेना ने सशस्त्र बल अधिकरण के आदेशों को उच्च न्यायालय द्वारा पारित आदेश से भिन्न ठहराने का प्रयास किया, लेकिन उच्च न्यायालय ने गोविन्द कुमार श्रीवास्तव प्रकरण का फैसला सुनाने वाली पीठ से अलग दृष्टिकोण अपनाने से इंकार कर दिया।
न्यायालय ने इन सभी याचिकाओं को सशस्त्र बल अधिकरण को स्थानांतरित करने का केन्द्र सरकार का अनुरोध भी अस्वीकार कर दिया।
याचिकाकर्ताओं द्वारा अपनी जान बलिदान करने की शपथ का संज्ञान लेते हुये न्यायालय ने कहा,
‘‘इन याचिकाओं में सभी याचिकाकर्ता सशस्त्र बल के सदस्य हैं जो ऐसे अकेले लोग हैं जिन्हें भारत के संविधान और कानूनों के तहत यह शपथ लेनी होती है कि वे राष्ट्रपति या उनके ऊपर प्रतिष्ठापित किसी अधिकार के आदेश का पालन करेंगे और यहां तक कि अपने जीवन का बलिदान भी कर देंगे। देश की सेवा में अपने जीवन का बलिदान करने की शपथ राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, राज्यों के राज्यपाल, उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों तक को नहीं लेनी होती है।’’
न्यायालय ने कहा कि सशस्त्र बल के सदस्य अपने जीवन को उच्च जोखिम में डालते हैं और ऐसी स्थिति में देश उनके प्रति कृतज्ञ रहता है।
पीठ ने पेश मामले में कहा कि भारतीय वायु सेना द्वारा एनसीओ को समानुपातिक पेंशन देने से इंकार करना न्यायालय द्वारा प्रतिपादित कानून का उल्लंघन है और यह सिर्फ परेशान करने वाला कृत्य है।
‘‘(आईएएफ का इंकार) करना पूर्व सैनिकों को दिलाई गयी शपथ को भूलने और इस शपथ को पूरा करने की मांग करते हुये याचिकाकर्ताओं को इस न्यायालय में आना और एक ही मुद्दे पर बार बार कानूनी लड़ाई लड़ना उन्हें सिर्फ परेशान करने वाला कृत्य है। हम पाते हैं कि प्रतिवादियों भारतीय वायु सेना का इस तरह का कृत्य न्यायालय की प्रक्रिया का दुरूपयोग है।’’
न्यायालय ने कहा कि वह इस बात को लेकर विस्मित हैं कि हालांकि सशस्त्र बल अधिकरण उच्च न्यायालय द्वारा प्रतिपादित व्यवस्था मानने के लिये बाध्य है लेकिन उसने इसके विपरीत दृष्टिकोण अपनाया है।
सशस्त्र अधिकरण के इस आचरण को ‘दुस्साहस’ बताते हुये न्यायालय ने कहा,
‘‘एक बार जब सशस्त्र बल अधिकरण के आदेश इस न्यायालय के न्यायिक समीक्षा के अंतर्गत आते हैं, तो अगर सशस्त्र बल अधिकरण उच्च न्यायालयों द्वारा प्रतिपादित कानून की अनदेखी करते हुये आदेश पारित करता रहेगा तो इसकी परिणति अराजकता होगी और उच्च न्यायालयों में अनुच्छेद 226 के तहत याचिकायें दायर होंगी जिनमें सशस्त्र बल अधिकरण के आदेशों को सरासर गैरकानूनी बताया जायेगा और यह दृष्टांतानुसरण सिद्धांत अर्थात् सशस्त्र बल के कार्मिकों के विवादों को तेजी से निबटाने के मकसद को ही विफल कर देगा।’’
भारतीय वायु सेना ने यह दलील देने का प्रयास किया कि समानुपातिक पेंशन देने से हर महीने 44 करोड़ रूपए का वित्तीय बोझ पड़ेगा और बकाया राशि के रूप में 250 करोड़ रूपए के भुगतान करने होंगें।
न्यायालय ने कहा कि यह दलीलें उसके पहले के आदेशो पर अमल के रास्ते में नहीं आ सकतीं क्योंकि शासन वाजिब बकाया राशि के भुगतान के लिये वित्तीय बोझ की दलील नहीं दे सकता है।
न्यायालय ने इसके साथ ही इन याचिकाओं को स्वीकार करते हुये याचिकाकर्ताओं को समयबद्ध तरीके से समानुपातिक आधार पर पेंशन की बकाया राशि भुगतान करने का निर्देश भारतीय वायु सेना को दिया।
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