उच्चतम न्यायालय ने सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गो के लिये महाराष्ट्र राज्य आरक्षण अधिनियम को चुनौती देने वाली याचिकायें आज वृहद पीठ को सौंप दी। इस अधिनियम में मराठा समुदाय के लिये शिक्षा और रोजगार के लिये आरक्षण का प्रावधान है।
न्यायमूर्ति एल नागेश्वर राव, न्यायमूर्ति हेमंत गुप्ता और न्यायमूर्ति एस रवीन्द्र भट की पीठ ने कहा कि इस दौरान नौकरियों और प्रवेश के मामले में कोई आरक्षण नहीं होगा।
न्यायालय ने आगे कहा कि इस दौरान पोस्टग्रेज्यूएट पाठ्यक्रमों में प्रवेश में बदलाव नहीं किया जायेगा। सम्पूर्ण प्रकरण अब मुख्य न्यायाधीश एसए बोबडे के समक्ष पेश किया जायेगा जो वृहद पीठ का गठन करेंगे।
पीठ ने 50 प्रतिशत के आरक्षण की सीमा का मामला 11 सदस्यीय संवैधानिक पीठ को सौंपने के सवाल पर संबधित पक्षों को सुना था।
महाराष्ट्र सरकार की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता मुकुल रोहतगी और याचिकाकर्ता की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने न्यायालय से अनुरोध किया कि 50 प्रतिशत आरक्षण की सीमा का मामला वृहद पीठ को भेजा जाये।
एसईबीसी अधिनियम महाराष्ट्र राज्य में मराठा समुदाय के लिए आरक्षण का प्रावधान करता है। संशोधनों के साथ अधिनियम को बनाए रखने के बॉम्बे हाई कोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट के समक्ष चुनौती दी गई थी। चुनौती के लिए प्राथमिक आधारों में से एक यह था इस अधिनियम को, अगर लागू किया जाता है तो चुनौती देने का एक प्रमुख आधार आरक्षण के लिये निर्धारित 50 फीसदी की अधिकतम सीमा का लांघना है।
राज्य के इस कानून के समर्थन में वरिष्ठ अधिवक्ता ने दलील दी कि समाज की जनसांख्यिकी की स्थिति में बदलाव होने के साथ ही इन्दिरा साहनी प्रकरण में नौ सदस्यों की पीठ के फैसले में निर्धारित आरक्षण की इस अधिकतम सीमा पर फिर से विचार करने की आवश्यकता है।
इस मामले को संवैधानिक पीठ को सौंपने के पक्षधर वकील का कहना था कि आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लिये आरक्षण का प्रावधान करने संबंधी संविधान के 103वें संशोधन के बाद 50 प्रतिशत की सीमा लगभग सभी राज्य लांघ चुके हैं।
सुनवाई के दौरान जनहित अभियान मामले का जिक्र करते हुये कहा गया कि संविधान के 103वें संशोधन के माध्यम से आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गो के लिये आरक्षण का मामला पहले ही संवैधानिक पीठ को सौंपा जा चुका है। इसलिए महाराष्ट्र के आरक्षण संबंधी अधिनियम को भी संवैधानिक पीठ को सौंप दिया जाना चाहिए।
दूसरी ओर, वरिष्ठ अधिवक्ता अरविन्द दातार और गोपाल शंकरनारायणन जैसे अधिवक्ताओं ने इसे संवैधानिक पीठ को सौंपने का विरोध किया और दलील दी कि अगर न्यायालय इस मामले में एसएलपी पर फैसला लेता है और इस निष्कर्ष पर पहुंचता हे कि मराठा समुदाय सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़ा नहीं है और इसलिए आरक्षण का हकदार नहीं है तो 50 फीसदी आरक्षण की सीमा लांघने का सवाल व्यर्थ हो जायेगा और इस मामले को संविधान पीठ को भेजने की जरूरत ही नहीं होगी।
इन अधिवक्ताओं ने यह भी दलील दी कि इस मामले की मेरिट पर सुनवाई की जानी चाहिए और अगर सुनवाई के दौरान न्यायालय इसे संविधान पीठ को सौंपने की आवश्यकता महसूस करता है तो ऐसा बाद में भी किया जा सकता है।
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