
सेवानिवृत्त सिविल सेवकों के एक समूह ने वन संरक्षण अधिनियम में हाल के संशोधनों की संवैधानिक वैधता को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट का रुख किया है, जो अन्य बातों के अलावा विकासात्मक गतिविधियों पर रोक लगाने वाले प्रावधानों को शिथिल करता है। [अशोक कुमार शर्मा और अन्य बनाम भारत संघ और अन्य]।
याचिकाकर्ताओं ने कहा कि जंगल और जंगलों में मेगाप्रोजेक्ट्स को अनुमति देने से जटिल पारिस्थितिक तंत्र बाधित हो सकता है और लुप्तप्राय जीवन-रूपों के अस्तित्व को खतरा हो सकता है।
20 अक्टूबर को जब यह मामला जस्टिस बीआर गवई, अरविंद कुमार और प्रशांत कुमार मिश्रा की पीठ के सामने सुनवाई के लिए आया तो कोर्ट ने इस मामले पर केंद्र सरकार से जवाब मांगा।
याचिकाकर्ताओं ने यह कहते हुए न्यायालय का रुख किया कि संशोधनों से भारत में वन भूमि के विशाल हिस्से को पहले दी गई कानूनी सुरक्षा में काफी कमी आई है।
यह तर्क दिया गया कि अब वनों की कटाई और अपरिवर्तनीय क्षति का सामना करना पड़ेगा।
याचिका में कहा गया है, "2023 का संशोधन अधिनियम देश की पर्यावरण, पारिस्थितिक और खाद्य सुरक्षा को खतरे में डाल देगा और स्थानीय समुदायों के जीवन और आजीविका को प्रभावित करेगा। यह वन भूमि के उपयोग के संबंध में केंद्र सरकार को निरंकुश विवेकाधिकार प्रदान करता है और वन भूमि की नियामक जांच को कम करता है। चूंकि यह विभिन्न संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन करता है और भारतीय पर्यावरण कानून के विभिन्न स्थापित सिद्धांतों का उल्लंघन करता है, इसलिए लागू 2023 संशोधन अधिनियम को पूरी तरह से रद्द किया जाना चाहिए।"
याचिका के अनुसार, कानून बनाने में उचित संसदीय प्रक्रिया और परामर्श का पालन नहीं किया गया।
यह अधिनियम टीएन गोदावर्मन मामले में सुप्रीम कोर्ट के 1996 के आदेशों का उल्लंघन है, जहां वन भूमि की पहचान एक विशेषज्ञ समिति द्वारा की जानी है, जिसकी रिपोर्ट सार्वजनिक डोमेन में होनी चाहिए।
इस बात पर भी जोर दिया गया कि वन भूमि को गैर-वन उपयोग के लिए खोलने से मानव-वन्यजीव संघर्ष बढ़ेगा।
अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं के 100 किलोमीटर के भीतर वन भूमि के लिए सुरक्षात्मक नियमों की व्यापक छूट पर भी आपत्ति जताई गई।
[आदेश पढ़ें]
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Retired civil servants move Supreme Court challenging amendments to Forest Conservation Act