सुप्रीम कोर्ट ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के अल्पसंख्यक दर्जे पर फैसला सुरक्षित रखा

यह मामला किसी शैक्षणिक संस्थान को अल्पसंख्यक दर्जा देने के मानदंडों और संसद द्वारा स्थापित केंद्र द्वारा वित्तपोषित विश्वविद्यालय को इस तरह से नामित किया जा सकता है या नहीं, इस पर आधारित है.
AMU hearing 7-judge bench: Judgment Reserved
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सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को उन याचिकाओं पर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया कि क्या अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) भारत के संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत अल्पसंख्यक दर्जे का हकदार है।

मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ , न्यायमूर्ति संजीव खन्ना, न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति जे बी पारदीवाला, न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता,  न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा की पीठ ने इस मामले में अपनी जवाबी दलीलों पर सुनवाई पूरी कर ली जिसके बाद पीठ ने अपना फैसला सुरक्षित रख लिया।

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आज मामले में सुनवाई का आठवां और अंतिम दिन था।

इस मामले में शामिल कानून के प्रश्न संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत एक शैक्षणिक संस्थान को अल्पसंख्यक दर्जा देने के मापदंडों से संबंधित हैं, और क्या संसदीय क़ानून द्वारा स्थापित केंद्र द्वारा वित्त पोषित विश्वविद्यालय को अल्पसंख्यक संस्थान नामित किया जा सकता है।

तत्कालीन सीजेआई रंजन गोगोई की अगुवाई वाली पीठ ने फरवरी 2019 में इस मामले को सात न्यायाधीशों के पास भेज दिया था।

1968 में एस अज़ीज़ बाशा बनाम भारत संघ के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने एएमयू को केंद्रीय विश्वविद्यालय माना था। उक्त मामले में, न्यायालय ने यह भी माना कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 29 और 30 के तहत केंद्रीय विश्वविद्यालय को अल्पसंख्यक दर्जा प्रदान नहीं किया जा सकता है।

हालांकि, संस्थान की अल्पसंख्यक स्थिति को बाद में 1920 के एएमयू अधिनियम में संशोधन लाकर बहाल कर दिया गया था। संशोधन वर्ष 1981 में लाया गया था।

इसे इलाहाबाद उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई, जिसने 2006 में इस कदम को असंवैधानिक बताते हुए रद्द कर दिया, जिसके कारण एएमयू ने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष तत्काल अपील की।

गौरतलब है कि 2016 में केंद्र सरकार ने इस मामले में अपनी अपील वापस ले ली थी।

आज की सुनवाई

अदालत ने आज एएमयू (याचिकाकर्ता-पक्ष) के अल्पसंख्यक दर्जे का बचाव करने वाले वकील की दलीलें सुनीं।

वरिष्ठ अधिवक्ता राजीव धवन ने एएमयू की अकादमिक परिषद सहित प्रबंधन में मुस्लिम प्रतिनिधित्व की बात की।

हालांकि, याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने कहा कि एएमयू के कार्यकारी और अकादमिक निकायों में मुसलमानों की संख्या संस्थान के अल्पसंख्यक दर्जे पर फैसला करने के लिए अप्रासंगिक है।

उन्होंने तर्क दिया कि यह मानना गलत है कि मुसलमानों या ईसाइयों (या अल्पसंख्यक समुदाय) को अल्पसंख्यक माने जाने के लिए एक संस्थान चलाना होगा। उन्होंने कहा कि ऐसे सभी पदों को भरने के लिए उस स्तर पर अल्पसंख्यक समुदाय के पर्याप्त शिक्षित सदस्य नहीं हो सकते हैं।

वरिष्ठ वकील ने आगे तर्क दिया कि एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे को चुनौती देकर देश के धर्मनिरपेक्ष ढांचे को खत्म नहीं किया जा सकता है।

इस बीच, सीजेआई ने पाया कि एएमयू अधिनियम में 1981 का संशोधन (जिसमें अजीज बाशा फैसले के बाद अल्पसंख्यक स्थिति को बहाल करने की मांग की गई थी) 1951 के संशोधन अधिनियम ( अजीज बाशा मामले में बरकरार रखा गया) से पहले प्रचलित स्थिति को बहाल नहीं करता है।

वकील शादान फरासत ने 1981 के संशोधन का हवाला देते हुए कहा कि संसद की रक्षा करना एएमयू या निजी पार्टियों की जिम्मेदारी नहीं है।

उन्होंने कहा, 'सरकार या कार्यपालिका के पास संशोधन का समर्थन करने या नहीं करने का विकल्प नहीं है। यह अनन्य रूप से न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र में है। हम केवल संशोधन का समर्थन कर रहे हैं क्योंकि संसद ने हमारे पक्ष में बात की है

एडवोकेट एमआर शमशाद ने कहा कि यह मामला देश में कई अल्पसंख्यक अधिकारों को प्रभावित करेगा, और फिर भी दूसरे पक्ष के तर्क ऐसे थे कि अनुच्छेद 30 को "सजावटी" प्रावधान में घटा दिया गया है।

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Supreme Court reserves verdict on minority status of Aligarh Muslim University

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