[ब्रेकिंग] अर्नब गोस्वामी: फौजदारी कानून मनमर्जी से परेशान करने का हथियार नही बनाना चाहिए, हाईकोर्ट ने अपनी भूमिका त्यागी, SC

न्यायालय ने कहा, आत्महत्या के लिये उकसान के पहलू साबित नहीं हुये
Arnab Goswami, Supreme Court
Arnab Goswami, Supreme Court

आत्महत्या के लिये उकसाने के मामले में रिपब्लिक टीवी के प्रधान संपादक अर्नब गोस्वामी को अंतरिम राहत दिये जाने के कारणों को बताते हुये उच्चतम न्यायालय ने आज कहा कि फौजदारी कानून को नागरिकों को मनमर्जी से परेशान करने का हथियार नहीं बनाना चाहिए।

न्यायमूर्ति धनंजय वाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति इन्दिरा बनर्जी की पीठ ने यह फैसला सुनाया। न्यामयूर्ति चंद्रचूड़ ने आज फैसला पढ़ते हुये कहा,

‘‘यह नहीं कहा जा सकता कि अपीलकर्ता ने आर्कीटेक्चरल फर्म के मुखिया को आत्महत्या के लिये उकसाया….’’

पीठ ने कहा, ‘‘उच्च न्यायालय ने कहा कि निरस्त करने को न्यायोचित ठहराने के अधिकार का सावधानीपूर्वक इस्तेमाल करना होगा। अगर उच्च न्यायालय का पहली नजर में यह आकलन है तो वह यह देख ही नहीं सकता था कि प्राथमिकी और भारतीय दंड संहिता की धारा 306 के बीच किसी प्रकार का संबंध नहीं था।’’

शीर्ष अदालत ने कहा कि सांविधानिक मूल्यों और मौलिक अधिकारों के संरक्षक के रूप में उच्च न्यायालय ने अपनी जिम्मेदारी का परित्याग किया। फौजदारी कानून नागरिकों को अपनी मनमर्जी से परेशान करने का हथियार नहीं बनना चाहिए।

न्यायालय ने कहा, ‘‘अपराध के लिये जरूरी तथ्य साबित नहीं था। उच्च न्यायालय दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 482के अंतर्गत अपने अधिकारों का इस्तेमाल करने में विफल रहा और संविधान के अनुच्छेद 226 के अंतर्गत प्रदत्त अधिकार का भी इस्तेमाल करने में विफल रहा।

अर्नब गोस्वामी को अंतरिम राहत देने के निर्णय को न्यायोचित ठहराते हुये न्यायालय ने आगे कहा,

‘‘ राज्य के हित के साथ ही यह देखने की जरूरत है कि क्या आरोपी साक्ष्य से छेड़छाड़ कर सकता है या आरोपी फरार हो सकता है या अपराध के लिये जरूरी तथ्य हैं…यह मामला एक नागरिक की स्वतंत्रता के बारे में है। अपीलकर्ता भारत के निवासी हैं और उनके भाग जाने का खतरा नहीं है, न ही वे साक्ष्य से छेड़छाड़ कर सकते हैं।’’

दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के तहत अधिकारों के इस्तेमाल में अदालतों को चौकन्ना रहने पर जोर देते हुये न्यायालय ने कहा,

‘इसे स्वतंत्रता की रक्षा में मदद करनी चाहिए और स्वतंत्रता की अवधारणा संविधान के माध्यम से मिलती है। फौजदारी कानूनों का दुरूपयोग ऐसी चीज है जिसके प्रति उच्च न्यायालय को सजग रहना चाहिए।’

इस पत्रकार को अंतरिम जमानत नहीं देने के लिये उच्च न्यायालय की आलोचना करते हुये शीर्ष अदालत ने कहा,

‘‘अर्नब गोस्वामी ने कहा है कि अप्रैल, 2020 से विभिन्न विषयों पर उनके दृष्टिकोण की वजह से उन्हें निशाना बनाया जा रहा है। लेकिन यहां, उच्च न्यायालय सांविधानिक मूल्यों और मौलिक अधिकारों के संरक्षक के रूप में अपनी भूमिका का त्याग कर दिया। आपराधिक कानून नागरिकों को मनमर्जी से परेशान करने का हथियार नहीं बनना चाहिए।’’

न्यायालय ने इस तथ्य का जिक्र किया,

‘‘इस तरह के मामलों के लिये अदालतों के दरवाजे बंद नही किये जा सकते और व्यक्तिगत आजादी से वंचित करने के सारे मामलों के लिये अदालतों के दरवाजे हमेशा खुले रहने चाहिए और एक दिन के लिये भी इस तरह से वंचित नहीं किया जाना चाहिए।’’

न्यायालय ने अपील का निस्तारण करते हुये कहा,

‘‘हमारी अदालतों को व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मामलों में न्याय प्रदान करने के लिये बेहद जागरूता दिखाने की आवश्यकता है।’’

न्यायालय ने कहा कि अंतरिम आदेश अगली कार्यवाही तक प्रभावी रहेगा। न्यायालय ने अर्नब और अन्य को इस मामले में आगे के विकल्प अपनाने की भी छूट प्रदान की।

शीर्ष अदालत की अवकाशकालीन पीठ ने 11 नवंबर को गोस्वमी, जो 2018 के आत्महत्या के लिये उकसाने के मामले में कथित संलिप्तता के कारण न्यायिक हिरासत में थे, को अंतरिम जमानत प्रदान की थी।

पीठ ने ऐसा करते समय कहा था कि बंबई उच्च न्यायालय ने सात नवंबर को अर्नब गोस्वामी को अंतरिम राहत देने से इंकार करके गलत किया था। न्यायालय ने गोस्वामी और दो अन्य सह आरोपियों को 50,000 रूपए के मुचलके पर तत्काल रिहा करने का आदेश दिया था।

इस मामले की सुनवाई की पिछली तारीख पर न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने टिप्पणी की थी, ‘‘अगर आज हम इस मामले में हस्तक्षेप नहीं करते हैं, तो हम बर्बादी के मार्ग पर बढ़ेंगे। अगर मुझ पर छोड़ा जाये, मैं चैनल नहीं देखूंगा और आप मेरे विचारों से असहमत हो सकते हैं लेकिन सांविधानिक न्यायालय को ऐसी स्वतंत्रता को संरक्षण प्रदान करना होगा।’’

गोस्वामी की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता हरीश साल्वे ने अपने मुवक्किल पर मुकदमा चलाने के लिये राज्य सरकार की दुर्भावना को रेखांकित किया था। उन्होंने न्यायालय को प्राथमिकी के विवरण से अवगत कराया और कहा कि इस मामले को बंद करने संबंधी ‘ए रिपोर्ट’ पिछले साल दाखिल की गयी थी।

उच्चतम न्यायालय ने तीन बिन्दुओं पर अपनी चिंता व्यक्त की थी, उच्च न्यायालय ने कहा कि ‘ए’ समरी रिपोर्ट जब दाखिल की गयी तो शिकायतकर्ता को नही सुना गया, उच्च न्यायालय ने कहा कि ‘ए’ रिपोर्ट स्वीकार करना दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 173(ए) के अंतर्गत आगे जांच नही रोकता है और 2018 की प्राथमिकी रद्द करने की याचिका अभी भी उच्च न्यायालय में लंबित है।

गोस्वामी की गिरफ्तारी को गैरकानूनी बताने के अलीबाग के मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के कथन की ओर न्यायालय का ध्यान आकर्षित करते हुये साल्वे ने कहा था कि पहली नजर में गोस्वामी और नाइक की आत्महत्या के बीच कोई संबंध नहीं है और उनके मुवक्किल को तुरंत रिहा किया जाना चाहिए।

उन्होंने न्यायालय से कहा था, ‘‘इस व्यक्ति को रिहा करने से क्या आसमान गिर पड़ेगा?’’

वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने न्यायालय में दलील दी थी कि मामला उच्च न्यायालय में लंबित होने के दौरान प्राथमिकी को पढ़ने के बाद आरोपी को जमानत देने से एक खतरनाक परपंरा पड़ेगी।

सिब्बल ने कहा था, ‘‘एक दो दिन इंतजार कीजिये और यह परंपरा मत डालिये। हम समझ रहें कि आपके दिमाग में क्या कुछ चल रहा है लेकिन हम जानते हैं जब असाधारण मामलों में असाधारण आदेश पारित किये जाते हैं तो उनके नतीजे होते हैं’’

उच्चतम न्यायालय में यह मामला सूचीबद्ध होने के तत्काल बाद ही उच्चतम न्यायालय बार एसोसिएशन के अध्यक्ष और वरिष्ठ अधिवक्ता दुष्यंत दवे ने यह जमानत याचिका दायर होने के अगले ही दिन सूचीबद्ध किये जाने के तरीके पर सवाल उठाया था।

दवे ने उच्चतम न्यायालय की रजिस्ट्री के सेक्रेटरी जनरल के पास कड़ा विरोध दर्ज कराते हुये यह सवाल उठाया था कि गोस्वामी की याचिका तत्काल सूचीबद्ध हुयी है जबकिइसी तरह की तमाम याचिकायें लंबित हैं।

इंटीरियर डिजायन अन्वय नाइक और उनकी मां की 2018 में आत्महत्या के मामले में चार नवंबर को गिरफ्तारी के बाद से ही गोस्वामी न्यायिक हिरासत में थे। नाइक ने अपने आत्महत्या के नोट मे गोस्वामी और दो अन्य के नाम लिखे थे और आरोप लगाया था कि वे काम कराने के बाद उनकी कंपनी को देय धन का भुगतान करने में विफल रहे।

यह मामला शुरू में 2019 में बंद कर दिया गया था लेकिन बाद में 2020 में नाइक की पुत्री अदन्या नाइक द्वारा राज्य के गृह मंत्री अनिल देशमुख को दिये गये प्रतिवेदन के बाद इसे फिर से खोला गया

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[Breaking] Arnab Goswami: Criminal law should not become a tool for selective harassment; High Court abdicated its role, Supreme Court

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