SC मे IPC की धारा 494 और शरिया कानून की धारा 2 की वैधता को चुनौती: सिर्फ मुस्लिम को दो बीवियों की अनुमति नहीं दी जा सकती

याचिकाकर्ताओं ने भारतीय दंड संहिता की धारा 494 में प्रयुक्त ‘किसी भी स्थित में ऐसा विवाह शून्य होगा’ वाक्य निरस्त करने का अनुरोध किया गया है।
SC मे IPC की धारा 494 और शरिया कानून की धारा 2 की वैधता को चुनौती: सिर्फ मुस्लिम को दो बीवियों की अनुमति नहीं दी जा सकती

उच्चतम न्यायालय में एक याचिका दायर कर कहा गया है कि सिर्फ एक धार्मिक समुदाय में बहुपत्नी प्रथा और दूसरे धर्मो में इस पर प्रतिबंध लगाने की अनुमति नहीं दी जा सकती है। याचिका में इस प्रथा को असंवैधानिक, महिलाओं का उत्पीड़न करने और समता के अधिकार का उल्लंघन करने वाली घोषित करने का अनुरोध किया गया है।

यह याचिका अधिवक्ता विष्णु शंकर जैन के माध्यम से पांच व्यक्तियों ने दायर की है। याचिका में भारतीय दंड संहिता की धारा 494 और मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरिया कानून), 1937 की धारा 2 को असंवैधानिक करार देने का अनुरोध किया गया है। ये धारायें मुस्लिम व्यक्ति को एक से ज्यादा पत्नियां रखने की इजाजत देता है।

याचिका में कहा गया है, ‘‘किसी हिन्दू, ईसाई या पारसी द्वारा अपनी पत्नी के जीवन काल के दौरान दूसरी शादी करना भारतीय दंड संहिता की धारा 494 के तहत दंडनीय है लेकिन किसी मुस्लिम द्वारा ऐसी शादी करना दंडनीय नहीं है। इसलिए धारा 494 धर्म के आधार पर भेदभाव करती है और इससे संविधान के अनुच्छेद 14 और 15(1) का उल्लंघन होता है।’’

भारतीय दंड संहिता की धारा 494 में प्रावधान है, ‘‘जो कोई भी पति या पत्नी के जीवित होते हुए किसी ऐसी स्थिति में विवाह करेगा जिसमे पति या पत्नी के जीवन काल में विवाह करना अमान्य होता है तो उसे किसी एक अवधि के लिये कारावास की सजा हो सकती है जिसे सात साल तक बढ़ाया जा सकता है और साथ ही आर्थिक दंड से दंडित किया जायेगा।’’

याचिकाकर्ताओं ने धारा 494 की धारा में ‘ऐसी स्थिति में विवाह करेगा जिसमे विवाह करना अमान्य होता है’ वाक्य निरस्त करने का अनुरोध किया है।

याचिका में कहा गया है कि धारा 494 का यह अंश मुस्लिम समुदाय में बहु विवाह प्रथा को संरक्षण प्रदान करता है क्योंकि उनका पर्सनल लॉ ऐसे विवाह की अनुमति देता है और मुस्लिम समुदाय में शादी और तलाक के मामले मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरिया) कानून की धारा 2 के प्रावधान से शासित होते हैं।

याचिका में कहा गया है, ‘‘इस प्रावधान से यह स्पष्ट है कि दूसरी पत्नी का अपराध सिर्फ उसी स्थिति में दंडनीय है जब दूसरा विवाद अमान्य हो। इसका मतलब यह हुआ कि दूसरा विवाह पर्सनल लॉ के तहत ऐसे विवाह को मान्यता देने पर निर्भर करता है। इसका नतीजा यह है कि किसी हिन्दू, ईसाई या पारसी द्वारा अपनी पत्नी के जीवनकाल के दौरान दूसरी शादी करना धारा 494 के तहत दंडनीय होगा लेकिन किसी मुस्लिम द्वारा ऐसा करना दंडनीय नहीं होगा। इसलिए धारा 494 सिर्फ धर्म के आधार पर भेदभाव ही नहीं करती बल्कि इससे संविधान के अनुच्छेद 14 और 15(1) का हनन भी होता है।’’

इस याचिका में दलील दी गयी है कि शासन दंडनीय कानून इस तरह से नहीं बना सकता जो विभिन्न वर्गो के बीच भेदभाव करता हो और एक कृत्य को किसी के लिये दंडनीय बनाया जाये और उसे ही दूसरे के लिये ‘आनंद’ का साधन।

याचिका के अनुसार, ‘‘धार्मिक परपंरा के आधार पर किसी भी आपराधिक कृत्य में भेदभाव नहीं किया जा सकता और दंडनीय कानून आरोपी पर उसके पर्सनल लॉ के प्रावधान के इतर सभी पर समान रूप से लागू करने होंगे।’’

याचिका में सी. मासिलामणि मुदलियार एवं अन्य बनाम प्रतिमा श्री स्वामीनाथस्वामी थिरुकोइल प्रकरण में उच्चतम न्यायालय के 1996 के फैसले को आधार बनाया है जिसमें यह व्यवस्था दी गयी कि महिलाओं को लैंगिक आधार पर भेदभाव का उन्मूलन करने का अधिकार है और उन्हें भी समता तथा समान अवसारों का अधिकार है जो सविधान के बुनियादी ढांचे का हिस्सा है।

याचिकाकर्ताओं का तर्क है कि धारा 494 ‘‘ सिर्फ धर्म के आधार पर भेदभाव करती है और इससे संविधान के अनुच्छेद 14 और 15(1) का उल्लंघन होता है।’’

चूंकि मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरिया) कानून, 1937 की धारा 2 है जो मुस्लिम समुदाय में शादियों और तलाक के मामले में लागू होती है और याचिका में इसे भी अनुच्छेद 14 के उल्लंघन के आधार पर चुनौती दी गयी है।

याचिका में द्विपत्नी प्रथा को अतार्किक, भेदभावपूर्ण और महिलाओं के उत्पीड़ल करने तथा संविधान के अनुच्छेद 14 और 15 (1) का उल्लंघन करने वाला घोषित करने का अनुरोध किया गया है।

कर्नाटक उच्च न्यायालय ने हाल ही में टिप्पणी की थी कि मुस्लिम शौहर द्वारा दूसरी शादी करना कानून सम्मत हो सकता है लेकिन अक्सर यह पहली पत्नी के साथ क्रूरता करता है।

उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ ने अगस्त 2017 में मुस्लिम समुदाय में तीन तलाक देने की प्रथा को असंवैधानिक करार दे दिया था।

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Bigamy cannot be allowed for Muslims alone: Plea in Supreme Court challenges Section 494 IPC, Section 2 of Shariat Application Act

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