कलकत्ता उच्च न्यायालय 20 साल पुरानी बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका 23 साल बाद सूचीबद्ध होने पर नाराज

इस मामले की 22 दिसंबर, 1997 को सुनवाई के समय न्यायालय ने इसे तीन महीने बाद सूचीबद्ध करने का आदेश दिया था
Calcutta High Court
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व्यक्तिगत स्वतंत्रता से संबंधित मामले सहित तमाम मुकदमों के सूचीबद्ध होने में विलंब का मामला एक बार फिर सुर्खियों में आया जब कलकत्ता उच्च न्यायालय ने दो दशक पुरानी बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका पर सुनवाई की।

यह मामला एक नवजात शिशु को जन्म के बाद उसकी मां को सौंपने में अस्पताल के विफल रहने से संबंधित था।

मुख्य न्यायाधीश थोट्टाथिल बी राधाकृष्णन और न्यायमूर्ति अरिजित बनर्जी की पीठ ने 1997 के इस मामले को सूचीबद्ध करने में अत्यधिक विलंब के लिये रजिस्ट्री को आड़े हाथ लिया और कहा कि 22 दिसंबर, 1997 के न्यायिक आदेश के बावजूद ऐसा हुआ है। उच्च न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश ने इस मामले को तीन महीने बाद सूचीबद्ध करने का आदेश दिया था।

पीठ ने कहा, ‘‘हालांकि, इस न्यायालय की रजिस्ट्री को कई निर्देशों के साथ ही इस मामले को तीन सप्ताह बाद सूचीबद्ध करने का आदेश दिया गया था, यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि उच्च न्यायालय की अलमारियों में 23 साल के अज्ञातवास के बाद यह मामला आज सूचीबद्ध हुआ।’’

Chief Justice Thottathil B Radhakrishnan and Justice Arijit Banerjee
Chief Justice Thottathil B Radhakrishnan and Justice Arijit Banerjee

न्यायालय ने बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका अत्यधिक विलंब से सूचीबद्ध किये जाने के तथ्य पर कड़ा रूख अपनाते हुये कहा कि अदालत को इसके लिये जिम्मेदार अधिकारियों के खिलाफ कदाचार की कार्रवाई शुरू करने पर विचार करना चाहिए।

न्यायालय ने अपने आदेश में कहा, ‘‘ न्यायिक आदेश के बावजूद उच्च न्यायालय का कार्यालय जब मामला सूचीबद्ध नहीं करते हैं तो कम से कम ऐसी चुनिन्दा परिस्थितियों में उचित होगा कि अदालतों को मामला सूचीबद्ध करने के न्यायिक आदेश की अवज्ञा करके न्याय की प्रक्रिया को प्रभावित करने वाले संबंधित अधिकारियों के खिलाफ कदाचार की कार्रवाई करने पर विचार करना चाहिए।’’

यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि उच्च न्यायालय की अलमारियों में 23 साल तक फाइल दबी रहने के बाद मामला सूचीबद्ध हुआ है।
कलकत्ता उच्च न्यायालय

उच्च न्यायालय ने दिसंबर 1997 को अपने आदेश में पुलिस महानिदेशक को मामला दर्ज करके इसकी जांच करने का निर्देश दिया था।

न्यायालय ने शुक्रवार को इस तथ्य का संज्ञान लिया कि 1997 के आदेश के आलोक में याचिकाकर्ता की बहन को छोड़ दिया गया था और उसे जाने के स्वतंत्र कर दिया गया था और उसे दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 161 के तहत अपना बयान दर्ज कराने के लिये पेश होने का निर्देश दिया गया था। धारा 161 के तहत पुलिस किसी अपराध के चश्मदीद गवाह का बयान दर्ज करती है।

न्यायालय ने अपने आदेश में इस मामले में आगे किसी आदेश की जरूरत नहीं होने का जिक्र करते हुये कहा कि इस कार्यवाही को बंद करना उचित है।

न्यायिक आदेशों के बावजूद जब मामला सूचीबद्ध नहीं हो तो अदालत को अधिकारियों (उच्च न्यायालय) के खिलाफ कार्रवाई पर विचार करना चाहिए।
कलकत्ता उच्च न्यायालय

उच्च न्यायालय ने अपने आदेश में एक बार फिर ‘’23 साल तक मामला सूचीबद्ध नहीं किये जाने पर विभाग के प्रति अपनी सख्त नाराज़गी व्यक्त की।’’

न्यायालय ने इसके साथ ही 23 साल पुराने इस मामले का निस्तारण कर दिया।

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Calcutta High Court laments delayed listing of two-decade-old Habeas Corpus plea after "23 years of hibernation"

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