उच्चतम न्यायालय में न्यायमूर्ति अशोक भूषण की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय पीठ ने अमरावती भूमि घोटाले की जांच पर रोक लगाने के आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के आदेश के खिलाफ राज्य सरकार की अपील पर आज तेलुगू देसम पार्टी के नेता वर्ला रमैया को नोटिस जारी किया। पीठ के अन्य सदस्यों में न्यायमूर्ति आर सुभाष रेड्डी और न्यायमूर्ति एमआर शाह शामिल हैं।
आंध्र प्रदेश सरकार ने इस अपील में उच्च न्यायालय का आदेश निरस्त करने और इसके 15 सितंबर के आदेश पर अंतरिम रोक लगाने का अनुरोध किया है। इसी आदेश के तहत कथित घोटाले की विशेष जांच दल की जांच पर रोक लगायी है।
वाईएस जगनमोहन रेड्डी सरकार ने पूववती चंद्रबाबू नायडू सरकार के कार्यकाल मे अमरावती में भूमि की बिक्री में कथित अनियमित्ताओं की जांच के लिये एसआईटी का गठन किया था। राज्य के भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो ने एक प्राथमिकी दर्ज की थी जिसमे शीर्ष अदालत के एक पीठासीन न्यायाधीश की पुत्रियों सहित अनेक लाभार्थियों के नाम थे।
हालांकि, तेलुगू देसम पार्टी के नेता वला रमैया और राजा ने आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय में याचिका दायर कर एसआईटी के गठन को चुनौती दी थी। उच्च न्यायालय ने एसआईटी गठित करने के सरकार के आदेश पर रोक लगा दी थी। न्यायालय ने मीडिया को भी इस प्राथमिकी के विवरण की रिपोर्टिंग करने से प्रतिबंधित कर दिया था। इसके बाद, राज्य सरकार ने इस आदेश के खिलाफ उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर की।
एसआईटी का गठन पूर्ववर्ती सरकार के कार्यकाल के दौरान हुयी अनियमित्ताओं की जांच करने और आरोप पत्र दाखिल करने के लिये किया गया था और उसे पिछली सरकार के फैसलों पर कैबिनेट की उप समिति की रिपोर्ट के विवरण की जांच करके मामले दायर करने का अधिकार दिया गया था।
उच्च न्यायालय के आदेश के बाद मुख्यमंत्री के प्रमुख सलाहकार अजय कल्लम ने 10 अक्टूबर को एक प्रेस कांफ्रेंस की और उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति एनवी रमना और आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों पर टीडीपी अध्यक्ष एन चंद्रबाबू नायडू की मिलीभगत से राज्य में वाईएसआर कांग्रेस सरकार को अस्थिर और गिराने का प्रयास करने के आरोप लगाये
राज्य सरकार की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता दुष्यंत दवे ने बृहस्पतिवार को बहस करते हुये सबसे पहले इस मामले में रवैया की स्थिति पर सवाल उठाया और कहा,
‘‘जब तक आप व्यक्तिगत रूप से शासन की कार्रवाई से प्रभावित नहीं हो कोई रिट विचारणीय नहीं है। इस न्यायालय ने हमेशा यही व्यवस्था दी है। पिछली सरकार ने जो कुछ भी गलत किया हो क्या उसे जांच बगैर ही रहने देना चाहिए? संविधान पीठ के फैसले इसके विपरीत है। इसकी जांच के लिये एसआईटी गठित की गयी। इसमें कौन सा नैसर्गिक न्याय है? याचिका बगैर किसी विवरण के ऐसे व्यक्ति ने दायर की है जिसकी इस मामले में कोई स्थित नहीं है।’’
दवे ने आगे कहा कि राज्य सरकार ने तो इसकी सीबीआई जांच के लिये मार्च 2019 में केन्द्र से भी अनुरोध किया था। हालांकि आज तक इसमें कोई जवाब नहीं मिला।
दवे ने अपनी इस दलील के समर्थन में अनेक फैसलों का हवाला दिया कि जांच के प्रारंभिक चरण में उच्च न्यायालय हस्तक्षेप नहीं कर सकता है।
‘‘अदालतों को जांच के समय से पूर्व के चरण में हस्तक्षेप करने से गुरेज करना चाहिए। इससे जांच हतोत्साहित होती है। उच्च न्यायालय के पास कोई असाधारण अधिकार नहीं हैं और वह उच्चतम न्यायालय की व्यवस्थाओं से बंधा हुआ है। यह न्यायालय 75 साल से कह रहा है कि इस चरण में उच्च न्यायालय हस्तक्षेप नहीं कर सकते।’’
टीडीपी नेताओं ने उच्च न्यायालय में अपने जवाब में दलील दी थी कि , ‘‘सरकार की कार्यकारी कार्रवाई भावी होती है न कि बीते हुये समय की और सत्ता में आने वाली पार्टी को जनादेश में पिछली सरकार के नीतिगत फैसलों की समीक्षा शामिल नहीं है।
उनका कहना था कि एसआईटी गठित की पूरी कवायद दुर्भावनापूर्ण मंशा से है और इसका कोई कानूनी आधार नहीं है।
आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने एसआईटी जांच पर रोक लगाते हुये कहा था, ‘‘कानून के शासन की अपेक्षा निरंतरता में है और नयी सरकार को पिछली सरकार के फैसलों को उलटने की अनुमति नहीं दी जा सकती।’’
उच्च न्यायालय ने यह भी कहा था कि सरकार को अपने कार्यकारी अधिकारों में ‘समीक्षा का अधिकार अंतर्निहित’ नहीं है।
हालांकि, शीर्ष अदालत में दायर अपील में दलील दी गयी है कि इस मामले में जांच को ‘समीक्षा का अधिकार’ नहीं बताया जा सकता।
‘‘जांच कराने की कार्रवाई को उस संदर्भ में ‘समीक्षा’ नहीं कहा जा सकता जैसा कि उच्च न्यायालय ने समझा है। दूसरी बात, उपरोक्त सिद्धांत न्यायिक और अर्द्ध न्यायिक संस्थाओं में उनके न्यायिक कामकाज के मामले में लागू होता है। यह किसी का मामला नहीं है कि इसमें कोई न्यायिक काम किया जा रहा था।’’
राज्य की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता शेखर नफड़े भी पेश हुये
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